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449. कष्ट सहिष्णु चेच्चा सव्वं विसोत्तियं फासे समियदंसिणे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2760]
- आचारांग - 1/6/2085 सम्यग्दर्शी सब प्रकार की चैतसिक चंचलताओं अथवा शंकाओं को छोड़कर कष्टों को समभाव से सहे । 450. ज्ञानी, कर्मक्षय आयाणिज्जं परिणाय परियाएणं विगिंचति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2761]
- आचारांग - 1/62085 ज्ञानी, कर्म-बंध अर्थात् आस्रव और बंध का स्वरूप जानकर पर्याय द्वारा उन्हें दूर करता है। 451. शरणभूत धर्म जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे आयरियपदेसिए।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2761-62]
- आचारांग - 1/63489 जैसे-समुद्र के मध्य में शरणभूत द्वीप है, वैसे ही संसार-समुद्र में अरिहंतों द्वारा उपदिष्ट यह धर्म शरणभूत है । 452. क्ले श पाणापाणे किलेसंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2761]
- आचारांग - 1/64480 प्राणी ही प्राणियों को क्लेश पहुंचाते हैं। 453. दर्शन-ज्ञान ध्वंसी णाणब्भट्ठा सण लूसिणो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2763] - आचारांग - 1/6/4/191
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4. 170