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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2676] सूत्रकृतांग - 1009
वैरभाव में गृद्ध आत्मा कर्मों के समूह को अपनी ओर खिंचती है ।
339. धर्म-धन
धर्मवित्ता हि साधवः ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2676] धर्मबिन्दु - 1/31
साधु का तो धर्म ही धन है अर्थात् साधु धर्मरूपी धनवाले होते हैं ।
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340. मृत्यु- चिन्तन
नेह लोके सुखं किञ्चि-च्छादितस्याहंसाभृशम् । मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2676 ] आवश्यक मलयगिरि - 12
अज्ञान से ढंके हुए इस संसार में जो सुख भासमान है वह वास्तव में कुछ भी सुख नहीं है। हर सुख का अन्त दुःख है एवं मनुष्यों का जीवन परिमित आयुवाला है, क्षणभंगुर है, न जाने कब मृत्यु आ जाय, यही चिन्तन करते हुए अपनी बुद्धि को धर्म में लगाओ ।
341. धर्म-पुरुषार्थ
भवकोटी दुष्प्रापा - मवाप्य नृभवाऽऽदि सकलसामग्रीम् । भवजलधियानपात्रे, धर्मे यत्नः सदा कार्यः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2676] संघाचार भाष्य 1 अधि. 1 प्रस्तावना.
करोड़ों भवों में दुर्लभ मनुष्य जीवन की समूची सामग्री पाकर संसार - सागर को पार करने में नौका के समान धर्म में सदा प्रयास करना चाहिए ।
342. उठ जाग मुसाफिर !
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संबुज्झह किं न बुज्झह ?
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारम• खण्ड-4 142