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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 3674] - आचारांग - 1/53460 साधक इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता है। 335. पाप, अकरणीय . अकरणिज्जं पावकम्मं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2675] - आचारांग - 153460 पापकर्म करने योग्य नहीं है। 336. सम्यक्त्व, अशक्य ण इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं। वंकासमायरेहिं पमत्तेहिं गारमावसतेहिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2675] - आचारांग - 183161 इस सम्यक्त्व का सम्यक रूप से आचरण करना उनके द्वारा शक्य नहीं हैं, जो शिथिल हैं, आसक्ति मूलक स्नेह से आर्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, कुटिल हैं; प्रमादी हैं और जो गृहवासी हैं। 337. धर्माचरण तबतक जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वढई । जाविदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2676] - दशवकालिक - 8/35 जबतक बूढापा नहीं आता है; जबतक व्याधियों का जोर नहीं बढता है; जबतक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती हैं, तबतक बुद्धिमान को जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए। 338. वैर से पाप-वृद्धि ... वेराणुगिद्धे णिचयं करेंति । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 141
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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