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172. आत्मज्ञानी, अलिप्त
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नाहं पुद्गलभावानां कर्ता कारयिताऽपि न च | नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2117]
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ज्ञानसार 11/2
मैं पौद्गलिक भावों का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नहीं हूँ, ऐसे विचारवाला आत्मज्ञानी लिप्त कैसे हो सकता हैं ?
173. सत्कर्म,
सुखद
इह लोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे, सुहफलं विवागं संजुत्ता भवन्ति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2134 ] स्थानांग 1/4/2/282
इसलोक में किए हुए सत्कर्म परलोक में सुखप्रद होते हैं ।
174. सत्कर्म
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इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे, सुहफलं विवागं संजुत्ता भवंति ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2134 ] स्थानांग 4/4/2/282 [2]
इस जीवन में किए हुए सत्कर्म इस जीवन में सुखदायी होते हैं ।
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175. निर्वेद से वैराग्य
निव्वएणं दिव्वं माष्णुस तेरिच्छिएसु ।
कामभोगेसु निव्वेयं हब्बामागच्छड् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2134 ]
उत्तराध्ययना 29/4
निर्वेद भावना से देवता, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी काम - भोगों
से शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ।
176. शंकाग्रस्त भय
संकाभोओ न मच्छेज्जा ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 101