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ज्ञानसार 113
जैसे विचित्र आकाश अंजन से लिप्त नहीं होता है वैसे ही अरूपी आत्मा भी कर्मलेप से यथार्थ में लिप्त नहीं होती। केवल पुद्गल ही पुद्गल से लिप्त होता है । इसप्रकार से ध्यान करनेवाले कर्ममल से लिप्त नहीं होते । 169. निर्लिप्तता
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लिप्तताज्ञानसम्पात-प्रतिघातायकेवलम् । निर्लेपज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2117] ज्ञानसार - 11/4
जो योगी निर्लेप ज्ञान में मग्न है, उसकी सभी सत्क्रिया उपयोगी होती है, लिप्तता ज्ञान के आगमन निवारण के लिए उपयोगी होती है। 170. ज्ञान - सिद्ध निर्लिप्त
संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोके, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 2117] ज्ञानसार 11A
काजल के घर के समान संसार में रहा हुआ स्वार्थ तत्पर समस्तलोक कर्म से लिप्त होता है अर्थात् कर्म से बँधता है, जबकि ज्ञान से परिपूर्ण कभी भी लिप्त नहीं होता ।
171. निश्चय - व्यवहार दृष्टि
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अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2117] ज्ञानसार 116
निश्चयनय के अनुसार जीव कर्म बन्धनों से जकड़ा हुआ नहीं है लेकिन व्यवहारनय के अनुसार वह जकड़ा हुआ है । ज्ञानीजन निर्लिप्त दृष्टि से शुद्ध होते हैं और क्रियाशील लिप्तदृष्टि से अशुद्ध ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड - 4 • 100
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