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14. सुखान्त-चिन्तन
न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, असासया भोग-पिवास जंतुणो । न चे सरीरेण इमेणऽवेस्सई, अवेस्सई जीविय पज्जवेण मे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 136] __ - दशवकालिक चूलिका Inin6
साधक यह चिंतन करे कि 'मेरा यह दु:ख चिरकाल तक नहीं रहेगा', क्योंकि जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर के रहते हुए भी न मिटी, तब भी कोई बात नहीं ! मेरे जीवन के अन्त में (मृत्यु के समय) तो वह अवश्य ही मिट जाएगी !' . 15. बार बार दुर्लभ बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 136]
- दशवैकालिक चूलिका Inin4 . सद्बोधि प्राप्त करने का अवसर बार बार मिलना सुलभ नहीं है ।
व्रतभ्रष्ट - अधोगति संभन्नवित्तस्स य हेटुओ गई।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 136]
- दशवैकालिक चूलिका Inin3 व्रत से भ्रष्ट होनेवाले की अधोगति होती है । 17. निर्ग्रन्थ-प्ररूपित तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहि, पवेइयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ 167]
एवं [भाग 6 पृ. 746] एवं [भाग 7 पृ. 273-502]
- आचारांग 1/5/5062 वही सत्य और नि:शंक है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है ।
16.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 60