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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1171]
- ज्ञानसार 88 बादलरहित चन्द्र की तरह परम त्यागी साधु अथवा योगी का स्वरूप – समृद्ध और अनन्त गुणों से देदीप्यमान होता है। 275. समता-पत्नी कान्ता मे समतैवैका ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1171]
- ज्ञानसार 88 'समता' ही एक मेरी पत्नी है। 276. मोह क्षीण - कर्म क्षीण
सुक्क मूले जहा रूक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । एवं कम्माण रोहंति, मोहणिज्जे खयं गए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1184]
- दशाश्रुतस्कंध 504 जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए; वह हराभरा नहीं होता, मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे-भरे नहीं होते। 277. कर्म बीज दग्ध
जहा दड्ढाण बीयाण, ण जायंति पुणंकुरा । कम्म बीएसु दड्ढेसु न जायंति भवंकुरा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 1184]
- दशाश्रुतस्कंध 505 बीज जब जल जाता है तो उससे नवीन अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता । ऐसे ही कर्म-बीज के जल जाने पर उससे जन्म-मरण रूप अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता। 278. मनदर्पण, निर्वाण
ओय चित्त समादाय, झाणं समणुपासति । धम्मे ठिओ अविमणो, निव्वाणमभिगच्छति ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 123