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________________ प्राक्कथन भारतवर्ष के सांस्कृतिक, धार्मिक, और राजनैतिक इतिहास तो प्रचुर परिमाण में लिखे गये और लिखे जारहे हैं; किन्तु भारतीय समाज में, शासनव्यवस्थाओं में तथा धार्मिक परम्पराओं में जैनों का कैसा -क्या योगदान रहा, इस विषय में विशेष दिलचस्पी इतिहास प्रणेताओ ने नहीं दिखाई । एक प्रकार की उपेक्षा भी रही । जैनधर्म को नास्तिक धर्म मानने के कारण उसके ऐतिहा महत्त्व को नगण्य मानने का प्रयास भी रहा । दूसरी ओर जैनों के अपने घर की स्थिति भी फूट और कलह के कारण टूटी-सी रही । साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण एक-दूसरे के वाङ् मय तथा ऐतिहासिक माहात्म्य को समझने तथा उसका मूल्यांकन करने का प्रयास भी नहीं किया गया । यह सब तो है ही, लेकिन इतिहास लेखन की दूषित अथवा पराधीन मनोवृत्ति के परिणामस्वरूप भी अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने नहीं आ सके । प्रसन्नता की बात है कि अब इतिहास को, विश्व - समन्वय के सन्दर्भ में, नवीन तथ्यों के प्रकाश में देखा जारहा है और अनेक मनीषी अनुसन्धान कार्य में लगे हैं । स्वीकार न भी करें तो भी पौराणिक प्रमाणों को साक्ष्य के रूप में भारतवर्ष में जैनों के महत्त्व का प्रारम्भ बहुत पहले चला जाता है | श्रीकृष्ण के चचेरे बन्धु जैनों के बाईसवें तीर्थंकर हो गये हैं जिनके कारण गुजरात सांस्कृतिक दृष्टि से निरामिष आहारी बना रहा । ईसा के नौ सौ वर्ष पूर्व वाराणसी में अश्वसेन राजा का राज्य था जिनके पुत्र पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर के रूप में विख्यात हैं और बिहार की तीर्थ भूमि पार्श्वनाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध है । भगवान् महावीर के प्रभाव से अनेक क्षत्रिय नृपति जैनधर्मानुयायी थे । इन सब की अनेक रोमांचकारी कथाएँ जैन साहित्य में सुरक्षित हैं । महावीर के पश्चात् सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक तथा सम्प्रति जैन ही थे । सम्प्रति ने तो विदेशों तक में जैनधर्म का प्रसार किया था । सिकन्दर महान् के साथ भी जैममुनि - विदेश गये थे ।
SR No.002308
Book TitleTirthrakshak Sheth Shantidas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRishabhdas Ranka
PublisherRanka Charitable Trust
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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