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तीर्थरक्षक सेठ शान्तीदास
कि कुछ बौहरे मन्दिर का सामान उठाकर अपने घर ले गए हैं। इस फरमान से ताकीद की जाती है कि उन बोहरों से सामान लेकर सेठ शाँतिदास को सौंपा जाय । जो सामान न मिले उसकी कीमत शांतिदास को दी जाय। यह फरमान बहुत जरूरी होने से उसकी तामील तुरन्त की जाय । इस फरमान में कुछ भी फेरबदल न किया जाय और न ही हुक्म की नाफरमानी की जाय । हीजरी सन् १०५८ जुमा अल्वार शा की २१ तारीख को यह फरमान जारी किया है ।
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शाही फरमान से वह मिल्कियत सेठ शांतिदास को सौंपदी गई, लेकिन उसके पुनरुद्धार की समस्या बड़ी गंभीर बन गई । उसका उपयोग नहीं किया जा सकता, ऐसी कुछ लोगों ने दलील की । सेठ शांतिदास ने महान् साधु संघ को आमंत्रित कर उनके समक्ष बात रखी | लम्बे समय तक चर्चा चली । अन्त में निर्णय हुआ कि वहाँ फिर से मंदिर की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती । लेकिन शाही फरमान के कारण मुस्लिम भी उसका उपयोग नहीं कर सकते थे, और न जैन ही उसका उपयोग कर पाते जिससे लाखों के खर्च से बनाया हुआ विशाल मंदिर खंडहर बना । सेठ शांतिदास के प्रयत्नों को रूढ़िवादी समाज ने निरर्थक बना दिया ।
यद्यपि जैन समाज की रूढ़िगत परम्परा के कारण वहाँ फिर से मन्दिर नहीं बन सका लेकिन इस प्रकार फरमान प्राप्त करना उनकी बहुत बड़ी विजय थी। समाज की अदूरदर्शिता ने शान्तिदास सेठ की विजय को पराजय बना दिया ।