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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
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शिल्पियों से नक्शे तैयार कराये । गुरु मुक्तिसागरजी ने धार्मिक विधि के अनुसार ५२ जिनालय के साथ-साथ भूईहरा ( तहखाना) बनाने की भी सलाह दी । शांतिदास सेठ ने अपना अधिकांश समय और शक्ति इसी काम में लगा दी । उनकी कामना थी कि मंदिर उत्कृष्ट हो । देहली से बादशाह का रुक्का भी प्राप्त होगया । सन् १६१२ में मंदिर की शिलान्यास - विधि सम्पन्न हुई और ४ साल में विशाल और कलापूर्ण मंदिर तैयार हो गया। मंदिर का नाम 'मेरुतुंग' रखा गया जिसमें चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति प्रतिष्ठित की गई । प्रतिष्ठा वाचकेन्द्र नामक साधु के नेतृत्व में हुई ।
शांतिदास सेठ ने उत्कृष्ट कलाकृति बनाने के लिए उदार हृदय से खर्च किया । उनका मंदिर एक सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में प्रसिद्ध हुआ और विदेशियों के लिए प्रेक्षणीय वस्तु बन गई । अनेक विदेशी प्रवासियों ने मंदिर के विषय में लिखा । आल्बर्ट डी० मेन्डेल एलो ने ई० सं० १६३८ में इस मंदिर के विषय में लिखा था
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"यह मंदिर संसार में अति सुन्दर है । मैंने जब अहमदाबाद की यात्रा की तब इस मंदिर के निर्माता सेठ शांतिदास जीवित थे । मंदिर के चारों और ऊँची दीवाल थी। बीच में विशाल चौक था । मुखद्वार के पास दो हयाम पाषाण के हाथी थे जिन पर सेठ की मूर्ति थी। मंदिर पर छत थी । दीवारों पर उत्तम कारीगरी वाली बेलें थीं, पक्षियों, अप्सराओं, राज दरबारियों तथा देवों के चित्र उत्कीर्ण थे । चारों ओर असंख्य देरियों में मूर्तियाँ थीं। मध्य भाग में तीन बड़े गर्भ द्वार और अन्तरमंदिर थे जिनमें भगवान की प्रतिमाएँ थीं । पीतल के दीपक की दीपमाला प्रकाश देती थीं ।
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प्रसिद्ध फ्रेंच प्रवासी टेबेलियर ने लिखा है - "शांतिदास द्वारा निर्मित मंदिर में प्रवेश करने पर तीन आंगन एक के बाद एक हैं । यह आँगन संगमरमर के पत्थरों के हैं । चारों तरफ गेलरी थी । बूट