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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
केवल समृद्धि ही एकत्र नहीं की प्रतिष्ठा भी पाई थी। वे बादशाह के जौहरी थे और आगे चलकर राजा, महाराजा और सूबेदारों को जरूरत के वक्त कर्ज भी दिया करते थे। उनकी हुण्डियां देश में ही नहीं विदेशों में भी चलती थीं। वे जौहरी थे, साहूकार थे, राजनीतिज्ञ थे, पर सर्वोपरि वे धर्मनिष्ठ जैन श्रावक भी थे। __ केवल अहमदाबाद ही उनका कर्मक्षेत्र नहीं था, अहमदाबाद के जैनमन्दिरों की सार-संभाल और व्यवस्था तो वे करते ही थे, शत्रुजय, संखेश्वर, तथा केशरियाजी आदि तीर्थों की व्यवस्था और सारसंभाल भी करते थे। गुजरात में मुगलसत्ता के बावजूद सेठ शांतिदास के प्रभाव तथा व्यवहार-कौशल के कारण जैनमंदिर सुरक्षित थे। उन्होंने समय-समय पर बादशाहों से फरमान प्राप्त कर तीर्थ-रक्षा का प्रबन्ध किया था।
धार्मिक कार्यों में उनकी निष्ठा अपूर्व थी। अपने गुरु मुक्तिसागरजी के पास जाकर धर्मोपदेश सुनते, व्रतनियम लेकर जीवन में संयम और तप का आराधन करते।
सेठ शांतिदास ने अहमदाबाद, राधनपुर, खंभात और सूरत में उपाश्रय निर्मित कराये और धार्मिक महोत्सवों में काफी खर्च किया। समाज के नेता व नगरसेठ का दायित्व सम्भालते, व्यापारियों के झगड़े निपटाते, पांजरापोल जैसी सार्वजनिक संस्थाओं का संचालन तथा देखभाल भी करते । इन सब कामों में समय और शक्ति लगाकर भी निरपेक्ष भाव से शासन की सेवा करते ।
उनके बड़े भाई वर्धमान भी बड़े समझदार व विवेकी थे। वे अपनी पेढी का तथा परिवार का काम देखते तो सेठ शांतिदास राजनैतिक, सार्वजनिक तथा सामाजिक कार्यों की तथा बाहर के कामों की देखरेख और व्यवस्था करते।