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शासन सम्राट : जीवन परिचय.
मिली तथा (२) महाराजश्री के हाथों महुवा के एक गृहस्थ को दीक्षा दी गई और उनका नाम सौभाग्यविजयजी रखा गया । 'अष्टकजी' का वांचन (अभ्यास) :
महुवा के चातुर्मास के बाद शत्रुजय, शंखेश्वर इत्यादि तीर्थों की यात्रा कर महाराजश्री राधनपुर पधारे । राधनपुर में महाराज श्री के व्याख्यानों का गहरा प्रभाव होने लगा और दिन प्रतिदिन श्रोताओं की संख्या बढने लगी । महाराज श्री राधनपुर में थे तब एक बार वे हरिभद्रसूरि कृत 'अष्टक' पढ रहे थे । हरिभद्रसूरि का यह ग्रंथ इतना पवित्र और पूजनीय माना जाता है कि इस ग्रंथ के लिए श्रावकगण
और साधुभगवंत 'जी' लगाकर 'अष्टकजी' बोलते हैं । महाराजश्री इस ग्रंथ का पठन कर रहे थे तभी कुछ श्रावक मिलने आए । उन्होंने सहज जिज्ञासा से पूछा :
'साहेब किस ग्रंथ का पठन कर रहे हैं?" 'अष्टकजी' का महाराज श्री ने कहा 'अष्टकजी' का साहेब आपका दीक्षापर्याय कितना है? 'सात वर्ष का' क्यों पूछना पडा ?' ।
'साहेब अविनय क्षमा करें किन्तु 'अष्टकजी' तो बीस वर्ष के दीक्षा पर्याय के बाद ही पढा जा सकता है ।'
भाई मैं तो उसमें चौदह स्वर और तैंतीस व्यंजन लिखे हैं वे पढ रहा हूं । यद्यपि आप कह रहे हैं ऐसा नियम किसी ग्रंथ में पढ़ा नहीं है । आपने पढा हो तो बताइए"