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शासन सम्राट : जीवन परिचय.
जामनगर में चातुर्मास : (सं. १९५०)
पालीताणा में महाराज श्री ने श्री दानविजयजी के साथ मिलकर अध्ययन अध्यापन का सघन कार्य प्रारंभ किया । चातुर्मास के बाद महाराजश्री गिरनार की यात्रा कर विचरन करते हुए जामनगर पहुंचे । यहाँ लोगों को उनके व्याख्यानों का आकर्षण इतना हुआ कि सं.१९५० का चातुर्मास जामनगर में करने का विचार किया । महाराज के दीक्षा पर्याय के अभी लगभग छ: वर्ष होने आए थे किन्तु उनकी तेजस्विता का बहुत प्रभाव पडता था । जामनगर का उनका स्वतंत्र चातुर्मास था । यहां उनके व्याख्यानों और उनके समझाने की शक्ति का इतना प्रभाव हुआ की उनसे उम्र में बड़े एक श्रीमंत को उनसे दीक्षा लेने का मन हुआ । इस श्रीमंत श्रावक को खाने पीने का बहुत शोक था । प्रतिदिन भोजन मे पेडे (पेडा) के बिना नही चलता था बीडी इत्यादि का भी उन्हें व्यसन था । इसीलिए परिवार के लोग उन्हें दीक्षा लेने से रोकते थे । केस को कोर्ट में लेजाया गया फिर भी उन्होंने दृढतापूर्वक महाराज श्री से दीक्षा ली । उनका नाम सुमतिविजय रखा गया । दीक्षा लेते ही उनके व्यसन एवं शौक स्वाभाविक ढंग से छूट गए । महाराज श्री के सानिध्य में संयमित जीवन अच्छी तरह बिताने लगे ।
जामनगर के चातुर्मास की एक दूसरी महत्वपूर्ण फलश्रुति यह थी कि महाराजश्री की निश्रा में सिद्धाचलजी तथा गिरनार का ६ 'री' पालक संघ निकाला गया । महाराजश्री को तीर्थयात्रा संघ