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________________ 87 तथा उस जन्म में आचरित तप, संयम का स्मरण करके विरक्त होने का स्पष्ट वर्णन है।६२ ___ उत्तराध्ययन सूत्र के १८ अध्ययन संजीय अध्ययन में तो स्पष्टत: पुनर्जन्म और शुभाशुभ कर्मों का अन्योन्याश्रय संबंध रूप गठबंधन बताते हुए कहा गया है- 'जो सुखद या दु:खद कर्म जिस व्यक्ति ने किये हैं वह अपने कृतकर्मानुसार पुनर्जन्म पाता है।'६३ - इसके पश्चात् १९वाँ अध्ययन मृगापुत्रीय में भी पूर्वजन्म के अस्तित्व को स्पष्टत: सिद्ध करता है। इसमें मृगापुत्र पूर्वजन्म का तथा देवलोक के भव में पूर्वजन्म में आचरित श्रमण धर्म का स्मरण करता है, साथ ही नरक और तिर्यंचगति में प्राप्त हुई भयंकर वेदनाओं और यातनाओं को सहन करने का भी वर्णन करता है।६४ इसके अतिरिक्त सुखविपाकसूत्र और दुःखविपाक सूत्र में तो पूर्वकृत शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त हुए सुखद दुःखद जन्म का तथा उसके पश्चात् उस जन्म में अर्जित शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में स्वर्ग नरक प्राप्ति रूप फल विपाक का निरूपण सुबाहुकुमार आदि की विशद कथाओं द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है।६५ इसके अतिरिक्त समरादित्य केवली की कथा भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म संबंधी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है। समरादित्य के साथ-साथ द्वेषवश उनका विरोधी लगातार कई जन्मों तक विभिन्न योनियों में जन्म लेकर वैर का बदला वसूल करता है। उधर समरादित्य भी पूर्वकृत शुभ कर्मवश सात्विक एवं पवित्र कुलों में जन्म लेकर, साधनाशील बन जाने पर भी अशुभ कर्मवश बार-बार वैरी द्वारा कष्ट पाते हैं। प्रत्येक भव में कुछ मंद कषाय एव मंद रागद्वेष से तथा शुभभाव से कष्ट सहकर पूर्वकृत कर्मों का फल भोगकर धीरे-धीरे कर्म क्षय करते जाते हैं। कई जन्मों तक यह सिलसिला चलता है। __ इस प्रकार चार घाति कर्मों को क्षय कर के वीतराग केवली बन जाते हैं। और अंत में शेष रहे शरीर से संबंध चार अघाति कर्मों को भी क्षय करके शुद्ध बुद्ध मुक्त हो जाते हैं।६६ जैनाचार्यों द्वारा रचित जैन कथाओं में प्राय: प्रत्यक्षज्ञानी (अवधिज्ञानी या मन:पर्यायज्ञानी) से अपने द्वारा कृतकर्मों के फलस्वरूप दुःख पाने के कारणों की पृच्छा करने पर वे उसके पूर्वजन्मों की घटना प्रस्तुत करते हैं। जैसे सती अंजना, चंदनबाला, द्रौपदी, सुभद्रा, कुंती दमयंती, प्रभावती, कलावती आदि सतियों को जो भयंकर कष्ट सहने पडे, उनके पीछे भी पूर्वजन्म कृतकर्मों का फल है यह प्रत्येक सती की जीवनगाथा से स्पष्ट प्रतीत होता है।६७ प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा जो भी कथन पूर्वजन्म और पुनर्जन्म संबंधी होता था। उसमें किसी भी प्रकार का राग-द्वेष ईर्षावश या कषायवश कोई भी बात नहीं कहते थे। उनके लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का अपलाप करने या असत्य कहने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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