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________________ आप्त का लक्षण भी यही है- जो वीतराग हो, अठारह दोषों से रहित हो, सर्वज्ञ हो, सर्व हितैषी हो।६८ सर्वज्ञ वीतराग प्रभुवचनों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म और कर्म का अविनाभावी संबंध इसके अतिरिक्त आचारांग, उत्तराध्ययन, विपाकसूत्र, निरियावलिकादि शास्त्रों में भी प्रत्यक्षज्ञानी आप्त पुरुषों ने, सर्वज्ञने यही प्रतिध्वनित किया है- कि जो आत्मवादी होता है, वह लोकवादी अवश्य होता है अर्थात् वह इहलोक-परलोक या स्वर्ग-नरक, मनुष्यलोक-तिर्यंच लोक को अवश्य मानता है। दूसरे शब्दों में पुनर्जन्म को असंदिग्ध रूप से मानता है। कर्मों के कारण ही कार्मण शरीर युक्त आत्मा का इहलोक और परलोक में आवागमन होता है। इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानियों के वचनों से पूर्वजन्म और पुर्नजन्म का अस्तित्व सिद्ध होने से कर्म का अस्तित्व भी नि:संदेह रूप से सिद्ध हो जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों और भारतीय मनिषियों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि प्रत्यक्षज्ञानियों ने तो पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के विषय में स्पष्ट उद्घोषणा की है। उनको माने बिना न तो आत्मा का अविनाशित्व सिद्ध होता है और न ही संसारी जीवों के साथ कर्म का अनादित्व। भारतीय मनीषियों ने तो हजारों वर्ष पूर्व अपनी अर्न्तदृष्टि से इस तथ्य को जान लिया था और आगमों, वेदों, धर्मग्रंथों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि में इसका स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है। ____ कुछ लोग भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही जीवन की समाप्ति समझ लेते हैं किन्तु डॉ. पी. व्ही. काणे के मतानुसार इस प्रकार लिखा है - 'ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म सिद्धांत कहीं नहीं मिलता है।'६९ फिर भी ऋग्वेद में कर्म का उल्लेख अनेक बार हुआ है। अन्यस्थानों में इसका संबंध यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों से है। ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत • ऋग्वेद वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन धर्मशास्त्र माना जाता है। उसकी एक ऋचा में बताया गया है कि 'मृत मनुष्य की आँख सूर्य के पास और आत्मा वायु के पास जाती है, तथा यह आत्मा अपने धर्म के अनुसार पृथ्वी में जल में और वनस्पति में जाती है'।७० इस प्रकार कर्म और पुनर्जन्म के संबंध का सर्वाधिक प्राचीन संकेत प्राप्त होता है। अथर्ववेद में सुकृत का उल्लेख आया है।७१ सत्पथ ब्राह्मण प्रतिदान का उल्लेख करता हुआ प्रतीत होता है। वे पुनर्मृत्यु में विश्वास का भी उल्लेख करते हैं।७२
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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