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________________ 85 आत्मा के द्वारा पूर्ववर्ती शरीर को छोडकर उत्तरवर्ती नूतन शरीर धारण करना पूर्वजन्म कहलाता है और इस जन्म का शरीर का आयुष्य पूर्ण होने पर कर्मानुसार अगले जन्म का शरीर का आयुष्य धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है और पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म को भारतीय दार्शनिकों ने पुनर्भव, पूर्वभव, जन्मांतर, प्रेत्यभाव, परलोक पर्याय परिवर्तन तथा भवांतर भी कहा है।४९ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के समय शरीर नष्ट होता है आत्मा नहीं . पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के साथ-साथ यह सिद्धांत अवश्य ध्यान में रखना है कि, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के समय उक्त प्राणी की आत्मा नहीं बदलती केवल शरीर और उससे संबंधित सजीव निर्जीव पदार्थ का संयोग कर्मानुसार बदलता है। आत्मा का कदापि विनाश नहीं होता, उसकी पर्यायों में परिवर्तन होता है। पूर्व पर्याय में जो आत्मा थी, वही उत्तर पर्याय में भी रहती है। मृत्यु का अर्थ स्थूल शरीर का विनष्ट होना है, आत्मा का नष्ट होना नहीं। जैसा कि - पंचास्तिकाय में बताया गया है शरीर-धारी मनुष्य रूप से नष्ट होकर देव होता है अथवा नारक आदि अन्य कोई होता है, परंतु उभयत्र उसका जीवभाव (आत्मत्व) नष्ट नहीं होता. और न ही वह (आत्मा) अन्यरूप में उत्पन्न होता है।५० अल्पज्ञों को जन्म से पूर्व एवं मृत्यु के बाद की अवस्था का पता नहीं बहुधा हम देखते हैं कि जीव दो अवस्थाओं से गुजरता है, वह जन्म लेता है, यह प्रथम अवस्था है और एक दिन मर जाता है, यह द्वितीय अवस्था है। जन्म और मरण की दोनों अवस्थाएँ परोक्ष नहीं हैं, हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं। प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ, बुद्धिमान और विचारशील मानव हजारों लाखों वर्षों से यह चिंतन करता आ रहा है कि जन्म से पूर्व वह क्या था? और मृत्यु के पश्चात् वह क्या बनेगा? वैदिक काल के ऋषियों में प्रारंभिक युगों में इसकी जिज्ञासा तीव्र रही है कि५१ "मैं कौन हूँ ? अथवा कैसा हूँ ? मैं जान नहीं पाता।" आत्मा के संबंध में ही नहीं, विश्व के विषय में भी ऋग्वेद के ऋषियों की शंका थी।५२ 'विश्व का यह मूल तत्त्व तब असत् नहीं था या सत् नहीं था, कौन जाने!' जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात्' मैं कौन था, क्या बनूँगा? कहाँ जाऊँगा?५३ इन प्रश्नों को इसी संदर्भ से समाहित करने का प्रयत्न किया गया। इन प्रश्नों का समाधान उन महापुरुषों ने किया, जो वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी एवं प्रत्यक्षज्ञानी थे। जिन्होंने स्वयं अनुभव और साक्षात्कार कर लिया था जीवन और मृत्यु का। आचारांग सूत्र में इसी संदर्भ में इस युग के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के उद्गार हैं- संसार में कई लोगों को यह संज्ञा (सम्यक्ज्ञान) नहीं होता कि 'मैं पूर्व दिशा से आया हूँ, दक्षिण दिशा से आया हूँ, अधोदिशा से आया हूँ अथवा अन्य दिशा से आया हूँ या अनुदिशा से आया हूँ।'
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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