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________________ 84 पूर्वजन्म और पुनर्जन्म क्यों माने ? अगर पूर्वजन्म और पुनर्जन्म ये दोनों न हों तब तो यह नहीं कहा जा सकता कि कर्म जन्म-जन्मांतर तक फल देते हैं और जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वे अविच्छिन्न रूप से उसके साथ संलग्न रहते हैं, किन्तु भारतीय दर्शनों के इतिहास का अध्ययन करने से . यह तथ्य सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट हो जाता है कि केवल चार्वाक दर्शन को छोडकर शेष सभी दर्शनों ने कर्म की सिद्धि के लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म दोनों को एक मत से माना है। सभी भारतीय आस्तिक दर्शन इस तथ्य से पूर्णतया सहमत हैं कि 'अपने किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना करोडों कल्पों तक संसार में परिभ्रमण करना पडता हैं'। ४७ कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इसी जन्म में और कभी-कभी तत्काल मिल जाता है, किन्तु कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं, जिनका फल इस जन्म में नहीं मिल पाता, अगले जन्म में या फिर कई जन्मों के बाद मिलता है। प्रत्येक प्राणी की जीवन यात्रा - अनेक जन्मों तक कई बार हम देखते हैं कि एक अतीव सज्जन नीतिमान एवं धर्मिष्ठ व्यक्ति सत्कार्य ... करने पर भी इस जन्म में उनके फल स्वरूप सुख नहीं पाता, जब कि एक दुर्जन, अधर्मी और पापी व्यक्ति कुकृत्य करने पर भी इस जन्म में लोक व्यवहार की दृष्टि से सुख और संपन्नता प्राप्त कर लेता है। ऐसी परिस्थिति को देखकर वर्तमान युग के नास्तिक अथवा कर्मसिद्ध रहस्य से अनभिज्ञ कई व्यक्ति यह कह बैठते हैं- 'कर्म विज्ञान में बड़ा अंधेर है । अन्यथा धर्म दुःखी और पापी सुखी क्यों होता?' इसके समाधान के लिए कर्म विज्ञान के मर्मज्ञ कहते हैं किसी भी प्राणी की जीवन यात्रा केवल इसी जन्म तक सीमित नहीं है । उसकी जीवन यात्रा आगे भी, कर्म मुक्त होने से पहले कई जन्मों तक चल सकती है। यह जन्म उसकी जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव नहीं है। इसलिए सुकर्मों या दुष्कर्मों का फल तो अवश्यमेव मिलता है। इस जन्म में नहीं तो, अगले जन्म में । कतिपय कृतकर्मों का फल इस जन्म में मिलता है और कई कर्मों का फल अगले जन्म में प्राप्त होता है । जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिलता उनके फल भोग के लिए कर्म संयुक्त प्राणी कर्मवशात पूर्ववर्ती स्थूल शरीर को छोडकर उत्तरवर्ती नया शरीर धारण करता है । 'भगवद्गीता' इस तथ्य को स्पष्टतया अभिव्यक्त किया है “जैसे वस्त्र फट जाने या जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर देहधारी जीव उनका त्याग करके नये वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार शरीर के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर व्यक्ति उसे छोडकर नयेये शरीर धारण करता है" । ४८
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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