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________________ 83 कारण भाव स्वीकार किया है। बीज और अंकुर की तरह कर्म और संसार को शांकर भाष्य में३७ बताया गया है। इस पर से भी संसार का मुख्य कारण कर्म ही सिद्ध होता है। संसार और कर्म का अन्वय-व्यतिरेक संबंध है। जहाँ-जहाँ कर्म है वहाँ-वहाँ संसार है, और जहाँ कर्म नहीं है वहाँ संसार नहीं है। जब तक इन दोनों का संबंध बना रहेगा तब तक संसार का चक्र और कर्म का चक्र दोनों साथ-साथ अविरत रूप से घूमते रहेंगे। संसार समुद्र से पार होने के लिए रत्नत्रय की साधना रूपी नौका द्वारा पार किया जाता है।३८ संसार चक्र और कर्म चक्र के अविनाभावी संबंध को विस्तृत रूप से स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय में भी इसी बात का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया है कि कर्मों का यह प्रवाह अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि अनंत है और भव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि सान्त है।३९ वैराग्यशतक में भी भतृहरि ने संसार के सुख दुःख की द्वंदात्मक स्थिति को देखकर लिखा है। न जाने इस संसार में क्या अमृतमय है और क्या विषमय है।४० अध्यात्मसार में भी संसार को दुःखमय बताया है।४१ इसलिए भगवान महावीर स्वामी ने उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात बताई है कि इस संसार में जितने भी अविद्यावान् पुरुष हैं, वे अपने लिए स्वयं दुःख उत्पन्न करते हैं, और मूढ बनकर अनंत संसार में परिभ्रमण करते हैं।४२ भगवद्गीता में भी यही कहा गया है कि 'जो व्यक्ति सद्धर्म में श्रद्धारहित हैं वे मुझे प्राप्त न होकर जन्म मृत्यु रूप संसार चक्र में कर्मवशात् भ्रमण करते हैं'।४३ अत: जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित यही सिद्धांत सत्य है कि जीव ही अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा अपने-अपने संसार का कर्ता-भोक्ता है, और कर्म क्षय एवं कर्म निरोध के द्वारा स्वयं ही वह कर्मों से मुक्त होता है। उसकी संसारावस्था का मूल कारण कर्म ही है। अतएव जहाँ संसार है, वहाँ कर्म अवश्यंभावी है।४४ महाभारत में भी यही बात बताई है।४५ कर्म अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म - पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या संभव नहीं है। जीवन का स्वरूप जो वर्तमान में दिखता है वह वहाँ तक सीमित नहीं है; अपितु उसका संबंध अनंत भूतकाल, और अनंत भविष्य के साथ जुडा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस अनंत श्रृंखला की कडी है। भारत में जितने भी आस्तिक दर्शन हैं वे सब पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की विशद चर्चा करते हैं। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को न माना जाये तो इस जन्म और पिछले जन्मों में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल की व्याख्या भी नहीं हो सकती।४६
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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