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________________ 82 यह प्रक्रिया अनादि कालीन होते हुए भी आत्मा अपने धर्म पुरुषार्थ द्वारा कर्मों को विलग अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर सकती है। 'जिस प्रकार कावडिया के द्वारा बोझा ढोया जाता है, उसी प्रकार शरीररूपी कावडिया के द्वारा संसारी (अशुद्ध) आत्मा जन्म मरणादि रूप संसार के अनेक कष्टों को सहती हुई कर्म रूपी भार को विभिन्न गतियों में ढोती हुई भ्रमण करती है । जब आत्मा के समस्त कर्मों का समूल विनाश हो जाता है, तब उस मुक्त आत्मा का स्वाभाविक शुद्ध रूप प्रकट हो जाता है३३ । गोम्मटसार३४ उत्तराध्ययन सूत्र ३५ में भी यही बात दर्शायी है। एक ही जीव के ये दो अवस्थाकृत भेद हैं। जीव (आत्मा) की संसार अवस्था को बद्ध अवस्था भी कहते हैं। कर्म रहित अवस्था को मुक्त अवस्था भी कहते हैं, या शुद्ध अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वाणी, जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, पीडा, -हानि, लाभ, सांसारिक सुख, दुःख तथा शुभाशुभ अष्टविध कर्म आदि नहीं होते। उस समय आत्मा निरंजन, निराकार, अशरीरी, अकर्म (कर्मरहित), आवागमन से रहित अमूर्त पूर्ण शुद्ध होती है। संसार तथा संसारी (अशुद्ध) दशा का मुख्य कारण : कर्म शुद्ध या अशुद्ध जितनी भी अवस्थाएँ हैं वे धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं पुद्गल आदि षड्द्रव्यों में से जीव तथा पुद्गल द्रव्य में ही पाई जाती हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। इसी प्रकार जीवों में शुद्ध और अशुद्ध दशा का जो अंतर किया जाता है, वह कर्म रूप अपेक्षा से किया जाता है। दर्शनशास्त्रों में दो प्रकार के निमित्त माने गये हैं । एक साधारण निमित्त यानी निमित्त होते हैं। जैसे जीवों की गति - अगति में सहायक धर्म-अधर्म द्रव्य तटस्थ निमित्त है । आकाश द्रव्य उसे अवकाश देने में तटस्थ सहायक है, तथा काल द्रव्य समय आदि के ज्ञान वस्तुओं के परिवर्तन को समझने में तटस्थ निमित्त बनता है। दूसरे सहकारी निमित्त होते हैं, जो किसी कार्य में प्रत्यक्ष सहकारी बनते हैं । जैसे घडे की उत्पत्ति में कुंभकार और कपडे की उत्पत्ति में बुनकर जुलाहा प्रत्यक्ष सहकारी निमित्त हैं । प्रश्न होता है जीव की इस अशुद्ध दशा या संसार दशा अथवा बद्ध दशा (अवस्था) का मुख्य कारण असाधारण निमित्त कौनसा है ? कौनसा ऐसा कारण या तत्त्व है, जिसके कारण जीव को नाना गतियों में परिभ्रमण करना पडता है । विभिन्न सुख - दुःखादि रूप फल भोगने पडते हैं? भगवान महावीर ने कहा- जीव की इस संसार दशा का मुख्य कारण कर्म है। दर्शन का मूर्धन्य ग्रंथ ब्रह्मसूत्र में ३६ संसार को अनादि मानकर कर्म का उसके साथ कार्य
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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