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ही मैं (आत्मा) सदैव शुद्ध शाश्वत और अमूर्त (अरूपी) तत्त्व हूँ, सदा ज्ञान दर्शनमय हूँ । मेरी (आत्मा) से भिन्न जो पर पदार्थ हैं उनका यत्किचित् परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । कहने का तात्पर्य यह है कि जितने भी पर पदार्थ हैं वे शुद्ध आत्मा से भिन्न हैं २६ ।
आत्मा की दो अवस्थाएँ
आत्मा (जीव ) की मुख्यत: दो अवस्थाएँ जैन- दर्शन में बताई हैं- एक संसारी अवस्था और दूसरी सिद्ध (मुक्त) अवस्था । इनमें से पहली अवस्था अशुद्ध है, जबकि दूसरी अवस्था शुद्ध है। इन्हीं दोनों को भगवती सूत्र २७ और प्रज्ञापना सूत्र २८ में क्रमशः संसारसमापन्न और `असंसारसमापन्न कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र २९ तत्त्वार्थसूत्र ३० और जीवाभिगम ३१ में भी -यही बात है। जो आत्माएँ कर्म संयुक्त होती हैं, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव परिवर्तन से युक्त होकर अनेक योनियों और गतियों में परिभ्रमण करती रहती हैं, वे सशरीरी आत्माएँ संसारी कहलाती हैं । ३२ ये संसारी आत्माएँ नित्य नये कर्म बाँधकर विभिन्न पर्यायों में उनके फल भोगती हैं।
जैन आगमों में आत्मा के बदले जीव शब्द का ही विशेषतः प्रयोग किया गया है । यों तो संसारी दशा और मुक्त दशा, इन दोनों दशाओं का कर्ता और भोक्ता स्वयं जीव (आत्मा) ही है। जीव ही अपने राग-द्वेष कषाय आदि शुभाशुभ परिणामों से स्वयं ही संसारी होता है और जब वह साधना और स्वपुरुषार्थ द्वारा संसार का अंत कर देता है तब वह मुक्त हो जा है। सिद्ध बुद्ध मुक्त होने के पश्चात् वह पुनः संसार में नहीं आता।
पंचाध्यायी में आत्मा और कर्म के परस्पर संबंध को स्वर्ण और मिट्टी के संबंध के समान अनादि बताया गया है। योगीश्वर महात्मा आनंदघनजी ने भी अपनी चौबीसी में एक महत्त्वपूर्ण पंक्ति लिखी है - 'कनकोपलवत् पयडी पुरुष तणी रे जोडी अनादि स्वभाव' ।
इस पंक्ति का सार भी इस तथ्य का समर्थन करता है, कर्म प्रकृति और पुरुष (आत्मा) की जोडी स्वर्ण और उपल के समान अनादि है। सोना खान से निकलता है तब अशुद्ध होता है, उसमें मिट्टी और कंकड़-पत्थर एक जैसे दिखते हैं किन्तु स्वर्णकार द्वारा जब वह मिट्टी मिश्रित स्वर्ण आग में तपाकर गलाया जाता है, तब स्वर्ण में से मिट्टी आदि मैल कट छट कर अलग हो होता है। परिणामतः स्वर्ण और मिट्टी का जो अनादि संबंध था वह टूट जाता है और अशुद्ध स्वर्ण शुद्ध हो जाता है।
इसी प्रकार आत्मा और कर्म का संबंध भी अनादि काल से चला आ रहा है। आत्मा अपने पूर्वकृत कर्मों का परिभोग करता है और नये कर्मों का बंध भी करता है । कर्मबंधन की