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आगम प्रमाण से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
नियत कार्यों की ओर मन की प्रवृत्ति को देखते हुए सिद्ध होता है, कोई उसका प्रेरक तत्त्व अवश्य है मन को जो प्रेरित करता है वही आत्मा है।१९ सर्वज्ञ, आप्त पुरुषों द्वारा प्रणीत या उपदिष्ट आप्त पुरुष सर्वज्ञ एवं सर्वसंशयोच्छेदक तथा सत्यवादी होते हैं।
___ आचारांग सूत्र में कहा गया है सभी दिशाओं और अनुदिशाओं से जो अनुसंचरण करता है, वह मैं (आत्मा) हूँ।२०
इस प्रकार जैन धर्म में आत्मा को परिणामी नित्य माना गया है। व्यवहार दृष्टि से द्रव्यसंग्रह में आत्मा का स्पष्ट स्वरूप इस प्रकार बताया गया है- जीव (आत्मा) उपयोगमय है, अमूर्त (अरूपी) है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण, प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, भोक्ता है, स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है तथा संसारी एवं सिद्ध, जीव दो प्रकार का है।२१
आत्मा अमूर्त होने से उसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये चार पुद्गल (जड) के धर्म नहीं पाये जाते हैं। फिर भी शरीर से इसका संयोग संबंध होने से वह जीव के अपने-अपने छोटे बडे शरीर के परिमाण के अनुसार छोटा बडा संकोच विस्तारवाला हो जाता है। आत्मा का असाधरणगुण : चैतन्य ___ जीव (आत्मा) का सामान्य लक्षण चैतन्य या उपयोग है। यही जीव (आत्मा) का असाधरण गुण है, जिसमें वह तमाम जड (अजीव) द्रव्य से अपना पृथक अस्तित्व रखता है।२२ तत्त्वार्थसूत्र२३ उत्तराध्ययनसूत्र२४ भगवती सूत्र२५ में भी इसी बात का उल्लेख है। - इस प्रकार स्पष्ट होता है, कि आत्मा नामक एक स्वतंत्र तत्त्व है, जिसका अस्तित्व
अनादि अनंत है। शरीरादि के नष्ट होने पर भी वह परलोक में जाता है। अमूर्त आत्मा कथंचित् मूर्त माना गया है। इसलिए स्व-स्व कर्म के वश विभिन्न गतियों और योनियों में जाता है। इस प्रकार संसारी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसके साथ प्रवाह रूप से कर्म का अस्तित्व भी मोक्ष प्राप्ति के पूर्व तक अवश्यंभावी मानना पडेगा। जहाँ कर्म वहाँ संसार
आत्मा की शुद्ध दशा प्राप्त कराना ही जैन दर्शन का लक्ष्य है जैन दर्शन का समग्र चिंतन, मनन एवं विश्लेषण आत्मा को केंद्र में रखकर हुआ है, क्योंकि जैन दर्शन का मुख्य
और अंतिम लक्ष्य आत्मा से परमात्मा बनने की प्रेरणा देता है। इसी कारण 'अप्पा सो परमप्पा' जो आत्मा है वही परमात्मा है।
जैन दर्शन के आध्यात्मिक उत्क्रान्तिकारी आचार्य श्री कुंदकुंदाचार्य कहते हैं- निश्चय