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जैन धर्म में यह भी कहा है कि सुषुप्त अवस्था में आत्मा में ज्ञान का अस्तित्व मानना पडेगा क्योंकि ज्ञान का अस्तित्व न माना जाये तो चैतन्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा। फिर सुप्त अवस्था में चैतन्य का प्रमाण यह भी है कि, जिस प्रकार जागृत अवस्था में चैतन्य होने पर श्वासोच्छ्वास चलना आदि क्रियाएँ होती हैं वैसी सुषुप्त अवस्था में भी होती हैं। अत: सुषुप्त अवस्था में भी चैतन्य और ज्ञान दोनों आत्मा में रहते हैं। इस प्रकार चैतन्य और ज्ञानगुण का अस्तित्व सिद्ध होने से गुणी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।१० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक११ न्यायकुमुदचंद्र१२ में भी इस बात का उल्लेख है। शरीरादि के भोक्ता के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
विशेषावश्यकभाष्य में बताया गया है कि, जैसे भोजन वस्त्रादि पदार्थ भोग्य होते हैं, पुरुष उनका भोक्ता होता है, उसी प्रकार देह आदि भी भोग्य होने से इनका भी कोई भोक्ता होना चाहिए, क्योंकि भोग्य पदार्थ स्वयं अपने आप भोक्ता नहीं होता, अत्तः शरीरादि का भी भोक्ता है वह आत्मा है। ईश्वर आदि अन्य कोई शरीरादि का कर्ता, भोक्ता अथवा स्वामी नहीं हो सकता क्योंकि यह युक्ति विरुद्ध है। अत: आत्मा ही उसका कर्ता भोक्ता या स्वामी है। १३ षड्दर्शन में भी यही बात बताई गई है।१४ परलोक के रूप में आत्मा की सिद्धि
मृत्यु के पश्चात् शरीर को जला दिया जाता है। शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से परलोक में जाने वाला कोई दूसरा तत्त्व अवश्य है और वह है आत्मा जीव ही अपने पुण्य पाप कर्मानुसार परलोक में जाता है। अगर ऐसा माना न जाये तो संसार, बंध, मोक्ष की व्यवस्था समाप्त हो जायेगी।१५ शरीरस्थ सारथी के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
जैसे रथ को चलाने वाली विशिष्ट क्रिया सारथी से प्रयत्नपूर्वक होती है, उसी प्रकार शरीर की विशिष्ट क्रिया भी किसी के प्रयत्नपूर्वक होती है। जिसके प्रयत्न से यह क्रिया होती है, वही आत्मा है। इस प्रकार शरीररूपी रथ के सारथी के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।१६ उपादान कारण के रूप में आत्मा की सिद्धि . ज्ञान, सुख, शक्ति आदि कार्यों का कोई न कोई उपादान कारण अवश्य है, क्योंकि ये कार्य है, जो कार्य होता है उसका उपादान कारण अवश्य होता है। जैसे घट रूप कार्य का उपादान कारण मिट्टी है। उसी प्रकार ज्ञान, सुख आदि कार्य का जो उपादान कारण है वह आत्मा है।१७ षड्दर्शन समुच्चय में भी यही बता दोहराई गई है।१८