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________________ 78 आत्मा स्वयं कर्म बांधती है और उनका फल भी स्वयं भोगती है। फिर सम्यक्ज्ञान एवं जागरण होने पर वह स्वयं ही कर्मों का निरोध एवं क्षय करने का पुरुषार्थ करती है। अत: आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ही कर्म के अस्तित्व का परिचायक सिद्ध होता है। वास्तव में गणधरवाद में जितनी भी चर्चाएँ हैं, वे सब आत्मा और कर्म के अस्तित्व से संबंधित हैं।५ इन्द्रभूति गौतम की आत्मा विषयक शंका और निराकरण विशेषावश्यकभाष्य के अन्तर्गत गणधरवाद में प्रथम गणधर इन्द्रभूति की शंका यही थी कि (आत्मा) किसी भी लौकिक प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती।६ तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने शंका का समाधान करते हुए इन्द्रभूति गौतम को कहा कि तुम्हें भी आत्मा प्रत्यक्ष है, किन्तु तुम्हारा यह प्रत्यक्ष आंशिक है, आत्मा का सर्व प्रकार से पूर्ण प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु मुझे सर्वथा आत्मा का साक्षात्कार है। ज्ञानगुण के द्वारा आत्मा का अस्तित्व ___ आत्मा का असाधारण लक्षण ज्ञान है। वह आत्मा के अतिरिक्त किसी भी शरीर, मन, बुद्धि या इन्द्रिय का लक्षण नहीं हो सकती। आत्मा और ज्ञान ये दोनों अभिन्न हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है- जो विज्ञान है वही आत्मा है, जो आत्मा है वही विज्ञान है। पंचास्तिकाय एवं नियमसार में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि ज्ञान से भिन्न आत्मा और आत्मा से भिन्न ज्ञान कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता। पंचास्तिकाय८अ और नियमसार८ब में भी ऐसा वर्णन उपलब्ध है। जहाँ आत्मा वहाँ ज्ञानगुण _ नंदीसूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि, संसार के समस्त जीवों में निगोदस्थ (अनन्तकायिक) जीव ऐसे हैं, जिनके उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता रहता है। फिर भी जैसे घनघोर घटाओं से सूर्य के पूर्णत: आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का कुछ अंश अनावृत रहता है, जिससे दिन और रात का विभाग होता है, उसी प्रकार उन जीवों में भी ज्ञान (अक्षरश्रुत) का अनंतवा भाग नित्य अनावृत (उदघाटित) रहता है। यदि ज्ञान पूर्णरूप से आवृत हो जाये तो जीव (आत्मा) भी अजीवत्व (अनात्मत्व) को प्राप्त हो जाए। इस तथ्य को स्पष्ट रूप से एक रूपक द्वारा समझा जा सकता है, जैसे- घनघोर घटाओं को विदीर्णकर दिवाकर की प्रभा भूमंडल पर आती है, किन्तु सभी मकानों पर उसकी प्रभा एक सरीखी नहीं पड़ती। मकानों की बनावट के अनुसार कहीं मंद, कहीं मंदतर और कहीं मंदतम रूप में पडती है, वैसे ही जीवों को अपनी-अपनी बनावट तथा मतिज्ञानावरणीय आदि के उदय की न्यूनाधिकता के अनुसार ज्ञान की प्रभा किसी किसी में मंद, किसी में मन्दतर और किसी में मंदतम होती है, परंतु उनमें ज्ञान पूर्ण रूप से कभी तिरोहित नहीं होता।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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