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________________ परतंत्र २३८, कर्म जीव को क्यों परतंत्र बनाता है ? २३८, कर्मों द्वारा जीवों का परतंत्रीकरण २३८, सुख-दुःख जीव के कर्माधीन २४१, मिथ्यात्वी आत्मा में तप त्याग की भावना कैसे? २४५, प्रत्येक आत्मा स्वयंभू शक्ति संपन्न है२४६, आत्मा की इच्छा बिना कर्म परवश नहीं होते २४६, आत्मा का स्वभाव स्वतंत्र .२४६, कर्मराज का सर्वत्र सार्वभौम राज्य २४७, कर्मरूपी विधाता का विधान अटल है २४७, कर्म : शक्तिशाली अनुशास्ता २४८, मुक्ति न हो तब तक कर्म छाया की तरह २४९, कर्म का नियम अटल है २४९, कर्मों के नियम में कोई अपवाद नहीं २४९, जड़ कर्म पुद्गल में भी असीम शक्ति २५०, कर्म शक्ति से प्रभावित जीवन २५०, कर्म और आत्मा दोनों में प्रबल शक्तिमान कौन?२५१, कर्म शक्ति को परास्त किया जा सकता है २५२, आत्म शक्ति, कर्म शक्ति से अधिक कैसे?२५३. कर्म मर्तरूप या अमूर्त आत्मा गुणरूप २५४, कर्म को मूर्त रूप न मानने का क्या कारण? २५४, गणधरवाद में कर्म मूर्त है या अमूर्त २५४, मूर्त का लक्षण और उपादान २५५, षड्द्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय ही मूर्त है २५६, गणधरवाद में कर्म की मूर्तत्व सिद्धि २५६, जैन दार्शनिक ग्रंथों में कर्म की मूर्तता सिद्धि २५६, आप्त वचन से कर्म मूर्त रूप सिद्ध होता है २५७, कर्मों के रूप कर्म, विकर्म और अकर्म २५७, क्या सभी क्रियाएँ कर्म है ? २५८, पच्चीस क्रियाएँ : स्वरूप और विशेषता २५८, सांपरायिक क्रियाएँ ही बंधकारक, ऐर्यापथिक नहीं २५९, क्रिया से कर्म का आगमन अवश्य, सभी कर्म बंधकारक नहीं २५९, कर्म और अकर्म की परिभाषा २६०, बंधक, अबंधक कर्म का आधार बाह्य क्रियाएँ नहीं २६०, अबंधक क्रियाएँ रागादि कषाययुक्त होने से बंधकारक २६१, साधनात्मक क्रियाएँ अकर्म के बदले कर्मरूप बनती हैं २६१, कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं, अकर्म का अर्थ निवृत्ति नहीं २६२, भगवान महावीर की दृष्टि से प्रमाद कर्म, अप्रमाद अकर्म २६२, सकषायी जीव हिंसादि में अप्रमत्त होने पर भी पाप का भागी २६३, कर्म और विकर्म में अंतर २६४, भगवदगीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप २६५, बौद्ध दर्शन में कर्म, विकर्म और अकर्म विचार २६६, कौन से कर्मबंध कारक, कौन से अबंधकारक ?२६६, तीनों धाराओं में कर्म, विकर्म और अकर्म में समानता २६६, कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप २६७ शुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण २६८, अशुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण २६८, शुभत्व और अशुभत्व के निर्णय का आधार २६९, बौद्ध दर्शन में शुभाशुभत्व का आधार २६९, वैदिक धर्मग्रंथों में शुभत्व का आधार : आत्मवत् दृष्टि २७०, जैन दृष्टि से कर्म के एकांत शुभत्व का आधार : आत्मतुल्य दृष्टि २७१, शुद्ध कर्म की व्याख्या २७१, शुभ अशुभ दोनों को क्षय करने का क्रम २७२, अशुभ कर्म से बचने पर शेष शुभ कर्म प्राय: शुद्ध बनते हैं .२७२, संदर्भ-सूची २७४.
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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