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________________ चतुर्थ प्रकरण १६८-२३३ कर्म का विराट स्वरूप कर्मबंध की व्यवस्था अष्टकर्मों का क्रम १७१, कर्म के मुख्य दो विभाग १७१, कर्मों के लक्षण १७२, ज्ञानावरणीय कर्म का निरूपण १७४, ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव फल भोग १७५, ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ १७७, मतिज्ञानावरणीय कर्म१७८, मतिज्ञानावरणीय कर्म बंध के कारण और निवारण १७८, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म १७९, श्रुतज्ञानावरणीय कर्मबंध के कारण और निवारण १७९, अवधिज्ञानावरणीय कर्म १८०, मन:पर्यायज्ञान की विशेषता १८०, केवलज्ञान १८१, ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव १८२, दर्शनावरणीय कर्म का निरूपण १८३, दर्शनावरणीय कर्म छ: प्रकार से बांधे १८४, दर्शनावरणीय कर्म का प्रभाव १८६, वेदनीय कर्म का निरूपण १८७, वेदनीय कर्म का विस्तार १८८, असातावेदनीय कर्म का फलानुभाव १८८, सातावेदनीय कर्म दश प्रकार से बांधे १८९, असातावेदनीय कर्म बारह प्रकार से बांधे १९०, साता-असातावेदनीय कर्म का प्रभाव १९०, मोहनीय कर्म का निरूपण १९१, मोहनीय कर्म का विस्तार १९३, चारित्रमोहनीय कर्म का स्वरूप १९३, दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ . १९४, चारित्रमोहनीय कर्म के दो भेद १९४, कषाय-चारित्र-मोहनीय की १६ प्रकृतियाँ १९५, अनंनतानुबंधी कषाय १९५, नोकषाय-चारित्र-मोहनीय का स्वभाव १९८, मोहनीय कर्मबंध के ६ कारण २००, मोहनीय कर्म पांच प्रकार से भोगे २००, मोहनीय कर्म का प्रभाव २०१, आयुष्य कर्म का निरूपण २०१, आयुष्य कर्म का विस्तार २०२, आयुष्य कर्म १६ प्रकार से बाँधे २०२, आयुष्य कर्म ४ प्रकार से भोगे २०५, आयुष्य कर्म का प्रभाव २०७, नामकर्म का निरूपण २०७, नामकर्म का विस्तार २०७, नामकर्म ८ प्रकार से बाँधे २१०, नामकर्म २८ प्रकार से भोगे २११, नामकर्म का प्रभाव २११, गोत्रकर्म का निरूपण २१२, गोत्रकर्म की १६ प्रकृतियाँ २१२, गोत्रकर्म १६ प्रकार से भोगे २१३, गोत्रकर्म का प्रभाव २१३, अंतराय कर्म का निरूपण २१३, अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ २१४, अंतराय कर्म बंध ५ प्रकार से भोगे २१६, अंतराय कर्म का प्रभाव २१६, कर्मबंध की परिवर्तनीय अवस्था के १० कारण २१७. अन्य परंपरा में तीन अवस्थाएँ २२०, कर्मबंध का मूल कारण : रागद्वेष २२१, राग या द्वेष में नुकसानकारक कौन? २२२, प्रशस्त राग २२३, अप्रशस्त राग और उनके प्रकार २२४ पंचम प्रकरण २३४-२८० कर्मों की प्रक्रिया कर्म पुद्गल जीव को परतंत्र बनाते हैं २३६, जीव को परतंत्र बनानेवाला शत्रु : कर्म २३६, कर्म विजेता : तीर्थंकर २३६, कर्म बंध का व्युत्पति लभ्य अर्थ २३७, आत्मा शरीर संबंध से पुन: पुन: कर्माधीन २३७, जीव कब स्वतंत्र और
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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