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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण जगत वैचित्र्य १०२, बौद्ध दर्शन की दृष्टि से विसदृशता कारण कर्म १०८, कर्म अस्तित्व कब से कब तक? १०९, तात्विक दृष्टि से कर्म और जीव का सादि और अनादि संबंध ११०, आत्मा अनादि है तो क्या कर्म भी अनादि हैं? १११, कर्म और आत्मा में पहले कौन? १११, दोनों के अनादि संबंध का अंत कैसे? ११३, भव्य और अभव्य जीव का लक्षण ११४, अभव्यजीव का कर्म के साथ अनादि अनंत संबंध ११४, भव्यजीव का कर्म के साथ संबंध अनादि सान्त ११४, संदर्भ-सूची ११६ तृतीय प्रकरण
१२३-१६७ कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन
जैनदृष्टि से कर्मवाद का आविर्भाव १२५, कर्मप्रवाह तोडे बिना परमात्मा नहीं बनते १२५, कर्मवाद के अविर्भाव का कारण १२६, भगवान ऋषभदेव द्वारा कालानुसार जीवन जीने की प्रेरणा १२६, कर्ममुक्ति के लिए धर्मप्रधान समाज का निर्माण १२७, धर्म-कर्म-संस्कृति आदि का श्रीगणेश १२८, कर्मवाद का प्रथम उपदेश : भगवान ऋषभदेव द्वारा १२९, कर्मवाद का आविर्भाव क्यों
और कब? १२९, कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया गया? १३०, तीर्थंकरों द्वारा अपने युग में कर्मवाद का आविर्भाव १३१, भगवान महावीर द्वारा कर्मवाद का आविर्भाव १३१, गणधरों की कर्मवाद संबंधी शंकाओं का समाधान १३१, जैनदृष्टि से कर्मवाद का समुत्थानकाल १३३, कर्मवाद के समुत्थान का मूल स्रोत१३३, कर्मवाद का विकास क्रम : साहित्य रचना के संदर्भ में १३५, विश्व वैचित्र्य के पांच कारण१३८, प्रत्येक कार्य में पांच कारणों का समवाय और समन्वय १३९, एकांत कालवाद १४०, एकांत स्वभाववाद १४०, एकांत नियतिवाद १४०, कर्मदाद मीमांसा १४१, कर्मवाद समीक्षा १४२, पुरुषार्थवाद की मीमांसा १४४, पुरुषार्थवाद समीक्षा १४५, पांच कारणवादों का समन्वय१४५, मोक्षप्राप्ति में पंचकारण समवाय १४६, सर्वत्र पंचकारण समवाय से कार्य सिद्धि १४७, कर्म शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप १४७, कर्म का सार्वभौम साम्राज्य १४७, जैनदृष्टि से कर्म के अर्थ में क्रिया और हेतुओं का समावेश १४९, पुद्गल का योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन १५०,विभिन्न परंपराओं में कर्म के समानार्थक शब्द १५१,कर्म के दो रूप : भावकर्म
और द्रव्यकर्म १५२, द्रव्यकर्म और भावकर्म की प्रक्रिया १५३, निमित्त नैमित्तिक श्रृंखला १५४, भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म कारण क्यों मानें ?१५४, भावकर्म की उत्पत्ति कैसे ? १५५, योग और कषाय आत्मा की प्रवृत्ति के दो रूप १५५, जितना कषाय तीव्र-मंद उतना ही कर्म का बंध तीव्र-मंद १५५, कर्म संस्कार रूप भी पुद्गल रूप भी १५६, आत्मा की वैभाविक क्रियाएँ कर्म हैं १५७, प्रमाद ही संस्कार रूप कर्म (आस्त्रव) का कारण १५७, कार्मण शरीर : कार्य भी है कारण भी है १५८, पुद्गल का कर्म रूप में परिणमन कैसे? १५९, जीव के रागादि परिणमन में पौद्गलिक कर्म निमित्त १६०, जीव पुद्गल कर्मचक्र १६१, संदर्भ-सूची १६२