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व्यवहार नय की अपेक्षा से जीव कर्मों से स्पृष्ट एवं बद्ध माना गया है । इस पर आचार्य अमृतचंद्र सूरि और आचार्य जयसेन ने टीकायें लिखी । ये तीनों ग्रंथ नाटकत्रय, प्राभृतत्रय या रत्नत्रय कहलाते हैं। इन तीनों के अतिरिक्त आचार्य कुंदकुंद के कतिपय और भी ग्रंथ हैं। जिनमें कुछ का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।
नियमसार
इस ग्रंथ में १८६ गाथायें हैं। इसमें सम्यक्त्व, आप्त, आगम, सप्त पदार्थ, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत द्वादशव्रत, द्वादशप्रतिमायें, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, परमसमाधि, परमभक्ति, शुद्धोपयोग आदि का वर्णन है।
इस ग्रंथ पर पद्मप्रभ मलधारी देव ने सन् १००० के आसपास टीका की रचना की । उन्होंने प्राभृतत्रय के टीकाकार आचार्य अमृतचंद्र सूरि की टीका के श्लोकों को अपनी नियमसार की टीका में भी उद्धृत किया है।
रयणसार
इसमें १६७ गाथायें हैं । यहाँ सम्यक्त्व को रत्नसार कहा गया है। इसमें भक्ति, विनय, वैराग्य, त्याग आदि का विवेचन है । निश्चय नय के आधार पर जिन संतों और विद्वानों का चिंतन रहा। उन्होंने आचार्य कुंदकुंद के विचारों का विशेष रूप से अनुसरण किया ।
वर्तमान शताब्दी में कानजीस्वामी नामक साधक हुए हैं, जिन्होंने आचार्य कुंदकुंद के समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रंथों को ही अपनी साधना का प्रमुखतम अंग स्वीकार किया तथा जीवनभर उन ग्रंथों पर प्रवचन दिया ।
दिगंबर परंपरा में संस्कृतरचनायें
दिगंबर परंपरा के अर्न्तगत संस्कृत में जैन सिद्धांत, आचार, न्याय आदि विषयों पर अनेक आचार्यों ने बडे-बडे ग्रंथ लिखे। जिनका जैन विद्या के क्षेत्र में ही नहीं, भारतीय विद्या के क्षेत्र में भी बडा महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनमें आचार्य समंतभद्र, अकलंक, विद्यानंदी, माणिक्यनंदी, अनंतवीर्य तथा प्रभाचंद्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
१) आप्तमीमांसा, २) रत्नकरंड श्रावकाचार, ३) अष्टसती, ४) अष्टसहस्त्री, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, परीक्षामुख, न्यायकुमुदचंद्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, सप्त भंगी तरंगिणी, न्यायदीपिका आदि अनेक महत्त्वपूर्ण संस्कृतग्रंथ हैं।