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प्रथम श्रुतस्कंध में छह द्रव्यों और पांच अस्तिकायों का विवेचन हैं। इसमें द्रव्य का लक्षण, सिद्धों का स्वरूप, जीव एवं पुद्गल का बंध, स्याद्वाद के सात भंग, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल के लक्षण आदि का प्रतिपादन किया गया है। ___ द्वितीय श्रुतस्कंध में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष का विवेचन है। आचार्य अमृतचंद्र सूरि तथा आचार्य जयसेन ने संस्कृत में टीकाओं की रचना की। प्रवचनसार
आचार्य कुंदकुंद का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें तीन श्रुतस्कंध (अधिकार) हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञान का, द्वितीय श्रुतस्कंध में ज्ञेय का और तृतीय श्रुतस्कंध में चारित्र का प्रतिपादन है। इसमें कुल दो सौ पंचहत्तर गाथायें हैं।
इसके प्रथम श्रुतस्कंध के ज्ञानाधिकार में आत्मा और ज्ञान का एकत्व एवं अन्यत्व, सर्वसत्त्व की सिद्धि, इंद्रिय सुख और अतिंद्रिय सुख, शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग, मोहक्षय आदि का निरूपण है।
· दूसरे श्रुतस्कंध में ज्ञेय अधिकार में द्रव्य गुण एवं पर्याय का स्वरूप, ज्ञान, कर्म, कर्म का फल, मूर्त-अमूर्त द्रव्यों के गुण, जीव और पुद्गल का संबंध, निश्चय और व्यवहार नय का विरोधाभाव, शुद्धात्मा का स्वरूप आदि का विश्लेषण है।
तृतीय श्रुतस्कंध चारित्राधिकार में श्रामण्य के चिन्ह, लक्षण, उत्सर्गमार्ग, अपवादमार्ग, आगमज्ञान का महत्त्व, श्रमण का लक्षण, मोक्षतत्त्व आदि विषयों का प्ररूपण है। इस ग्रंथ पर भी आचार्य अमृतचंद्र सूरि तथा आचार्य जयसेन सूरि द्वारा रचित टीकायें हैं। समयसार
समय का अर्थ सिद्धांत या दर्शन है। समयसार में जैन सिद्धांत या तत्त्वों का विवेचन है। इसमें दस अधिकार हैं और (४३७) गाथायें हैं। प्रथम अधिकार में स्वसमय, परसमय, शुद्धनय, आत्मभावना एवं सम्यक्त्व का निरूपण है। दूसरे अधिकार में जीव अजीवका, तीसरे में कर्म-कर्ता का, चौथे में पुण्य-पाप का, पाँचवे में आस्रव का, छट्टे में संवर का, सातवे में निर्जरा का, आठवे में बंध का, नौवें में मोक्ष का और दसवें में शुद्ध पूर्ण ज्ञान का वर्णन है। शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव को कर्मों से अस्पृष्ट और आबद्ध-बिना छूआ हुआ माना गया है।