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हरिभद्रसूरिजी के बाद अपराजितसूरि, सोमचंद्रसूरि आदि के द्वारा भी टब्बा की रचना की। इसका गुजराती में अनुवाद भी मिलता है। समीक्षा
इतना विशाल व्याख्या साहित्य लिखे जाने का अभिप्राय यह है कि जैन तत्त्वज्ञान और आचार विधाओं के अध्ययन में साधुओं के साथ-साथ गृहस्थों की भी अभिरुचि रही है। अतएव व्यापक लाभ की दृष्टि से यह विपुल साहित्य रचा गया।
इस व्याख्यामूलक साहित्य में तात्त्विक सिद्धांतों का, साधुओं की चर्या का तथा गृहस्थ उपासकों की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक स्थितियों का विभिन्न वर्गों के लोगों के कार्य, शिल्प, व्यवसाय, शिक्षा, कलाकृतियाँ, स्थापत्य, भवन निर्माण कला इत्यादि की रचना हुई। जैसे बतलाया गया है। नियुक्तियाँ और भाष्य प्राकृत गाथाओं में लिखे गये, चूर्णियों की रचना गद्य में हुई। नियुक्ति और भाष्यों में जैन धर्म के सिद्धांत विस्तार से प्रतिपादित नहीं किये गये। संक्षिप्त एवं सांकेतिक रूप में वहाँ विवेचन हुआ। इसके अतिरिक्त नियुक्तियों और भाष्यों की गाथायें कई कई आपस में मिश्रित होती गई। इसलिए उनके माध्यम से जैन दर्शन और आचार के सिद्धांतों को विशेष रूप से समझना साधारण पाठकों के लिए कठिन हो गया। __ चूर्णियों की एक विशेषता यह रही कि वहाँ प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा का भी प्रयोग हुआ। इसके कारण भाषा की रोचकता भी बढी ओर विषयों के निरूपण में अधिक अनुकूलतायें हुईं। टीका
चूर्णियों के बाद भी व्याख्यामूलक साहित्य की रचना का क्रम आगे बढ़ता रहा। विद्वानों, आचार्यों ने संस्कृत में आगमों पर बडे विस्तृत रूप में वृत्तियों या टीकाओं की संस्कृत में रचना की संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जिसमें थोडे शब्दों में विस्तृत भाव प्रकट किया जा सकता है।
आचारांग और सूत्रकृतांग पर आचार्य शीलांक द्वारा रचित टीकायें प्राप्त हैं। इन दोनों अंग सूत्रों का आगमों में सर्वोपरि महत्त्व है। आचार्य शीलांक की टीका के साथ इन आगमों का अध्ययन करने से जैन दर्शन के गहन तत्त्वों को भलिभाँति समझा जा सकता है।
इन दो आगमों के अतिरिक्त बाकी के दो अंग आगमों पर आचार्य अभयदेव सूरि ने टीकाओं की रचना की। वे नवांगी टीकाकार कहे जाते हैं। उनके द्वारा रचित टीकाओं का जैन साहित्य में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।