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गंभीरता से युक्त वाक्य का सुविस्तृत शब्दों में विश्लेषण करना भाष्य है।१०२
__विद्वानों ने भाष्य की एक अन्य प्रकार से भी व्याख्या की है- 'जहाँ सूत्र का अर्थ, उसका अनुसरण करने वाले शब्दों द्वारा किया जाता है, अथवा अपने शब्दों द्वारा उसका विशेषरूप में वर्णन किया जाता है, उसे भाष्य कहा जाता है।
नियुक्ति की तरह भाष्यों की रचना भी प्राकृत गाथाओं में संक्षिप्त शैली में हुई है। उनमें भी मुख्य रूप से अर्धमागधी का प्रयोग हुआ है। कुछ स्थानों पर मागधी और शौरसेनी का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। भाष्यों की रचना का समय सामान्यत: लगभग चौथी पाँचवी शताब्दी माना जाता है। . भाष्य साहित्य में विशेषत: निशीथभाष्य, व्यवहारभाष्य तथा बृहत्कल्पभाष्य का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। भाष्य में अनेक प्राचीन अनुस्तुतियाँ- सुनी हुई बातें, लौकिक कथायें तथा साधुओं के परंपरागत प्राचीन आचार, विचार आदि की विधियों का विवेचन है। जैन साधु संघ के प्राचीन इतिहास को भलिभाँति जानने के लिए भाष्यों का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है।
संघदासगणि क्षमाश्रमण ने कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्यों की रचना की, ऐसा प्रसिद्ध है। ये आचार्य हरिभद्रसूरि के समकालीन थे। चूर्णि
नियुक्तियों और भाष्यों के पश्चात् चूर्णियों की रचना की। केवल अंग आगमों पर ही नहीं किंतु उपांग, मूलादि अन्य आगमों पर भी टीकाओं की रचना होती रही, जिनमें से बहुत सी टीकाएँ आज हमें प्राप्त हैं। धन्य हैं वे आचार्य जिन्होंने ज्ञानाराधना का बहुत बडा कार्य किया तथा लोगों पर अत्यधिक उपकार किया। टब्बा
संस्कृत टीकाओं के बाद व्याख्या का एक और रूप प्रकाश में आया, उसे टब्बा कहा जाता है। गुजराती एवं राजस्थानी भाषाओं में आगमों पर टब्बों की रचनायें हुई। गुजरात, राजस्थान में जैन धर्म बहुत फैला हुआ था। आज भी है।
टब्बा संभवत: संस्कृत के स्तब्ध शब्द से बना है। स्तब्ध का अर्थ घेरा हुआ, रोका हुआ, अवरुद्ध किया हुआ होता है। टब्बा मूल आगम के शब्दों को अर्थ द्वारा घेरे रहता है। अत: शाब्दिक दृष्टि से यह शब्द सार्थकता लिये हुए है।
टब्बा का तात्पर्य- आगम के शब्दों का बहुत ही सरल रूप में अर्थ देना है। जिन-जिन शब्दों का अर्थ किया जाता, उनके नीचे उसके टब्बे लिख दिये जाते हैं। साधारण लोग इन टब्बों की सहायता से आगमों का आशय या भाव बडी सुगमता से समझ लेते। आचार्य