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दशवैकालिक के पंचम अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। इस अध्ययन पर आचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गई है। यही कारण है कि इसे पिण्ड-नियुक्ति के नाम से एक स्वतंत्र आगम के रूप में स्वीकार कर लिया है। ओघनियुक्ति
ओघ का अर्थ है प्रवाह, सातत्य, परंपरा प्राप्त उपदेश है। जिस प्रकार पिण्डनियुक्ति में साधुओं के आहार विषयक पहलुओं का विवेचन है उसी प्रकार इसमें साधु जीवन से संबंध आचार व्यवहार के विषयों का संक्षेप में उल्लेख किया है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है। उसी प्रकार इसे आवश्यक नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है। जिसके रचयिता आचार्य भद्राबाहु हैं।
ओघनियुक्ति प्रतिलेखना द्वार, आलोचना द्वार तथा विशुद्धि द्वार में विभक्त है। प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु जीवन चर्या का इसमें समावेश है।१०० भगवती आराधना'०१ में भी यही कहा है। पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति
इन दोनों ही नियुक्तियों को पैंतालीस आगमों में क्यों लिया हो यह प्रश्न है और दोनों अलग-अलग आगम अंशों की नियुक्तियाँ होते हुए भी दोनों का नाम साथ में दिया है। इसका कारण भी विचारणीय है। वास्तव में दोनों के विषय साधु जीवन संबंधी हैं इसलिए नाम साथ में दिया हो ऐसा हो सकता है, किंतु नियुक्तियाँ तो और भी हैं परंतु उनका आगम में समावेश नहीं किया जाता है, यदि इनको न लिया जाये तो पैंतालीस की संख्या नहीं होगी
और दोनों को अलग-अलग लिया जाये तो छियालीस हो जायेगें इसलिए दोनों का साथ में विवेचन किया हो ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यह विचारणीय है।
इस प्रकार श्वेतांबर, स्थानकवासी और तेरापंथी परंपरा द्वारा मान्य बत्तीस आगम और इन बत्तीस में श्वेतांबर मूर्तिपूजक द्वारा मान्य और तेरह आगम मिलाने से कुल पैंतालीस आगमों की विषयवस्तु यहाँ संक्षेप में प्रतिपादित किया है। आगमों के आधार पर जैन सिद्धांत की मंजिल खडी है। इसलिए यहाँ पर आगमों का विवेचन किया है।
आगमों पर व्याख्या साहित्य ... आगमों की व्याख्या और विश्लेषण में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विधाओं में साहित्य की रचना की। इसका एक ही लक्ष्य था कि आगमगत तत्त्वों का विशद रूप में विवेचन किया जाये ताकि अध्ययन करने वाले, जिज्ञासु जन आगमों का सार आत्मसात करने में, सक्षम हो सके, क्योंकि आगमों पर ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन और संघ का प्रासाद अवस्थित है।