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है। परिषह सहन करके पादपोपगमन संथारा करके सिद्ध गति प्राप्त करने वालों के दृष्टांत भी दिये हैं, अंत में अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं पर भी प्रकाश डाला है और भी अनेक प्रकीर्णकों की रचनाएँ हुई हैं किन्तु वे प्राप्त नहीं हैं। महानिशीथ (छेदसूत्र)
महानिशीथ पूर्ण रूप से यथावत् नहीं रह सका है। इसमें छह अध्ययन तथा दो चूलाएँ हैं। प्रथम अध्ययन का नाम शल्योद्धरण है। इसमें पापरूपी शल्य की निंदा और आलोचना के संदर्भ में अठारह पाप स्थानकों की चर्चा है। ___ द्वितीय अध्ययन में कर्मों के विपाक तथा पाप कर्मों की आलोचना की विधेयता का वर्णन है। तृतीय और चतुर्थ अध्ययन में कुत्सित शील या आचरण वाले साधुओं का संसर्ग न किया जाने के संबंध में उपदेश है। पंचम अध्ययन में गुरु-शिष्य के पारस्पारिक संबंध का विवेचन है, उस प्रसंग में गच्छ का भी वर्णन है। षष्ठ अध्ययन में आलोचना के दस भेदों का तथा प्रायश्चित के चार भेदों का वर्णन है। इस सूत्र की भाषा तथा विषयवस्तु को देखते हुए यह रचना अर्वाचीन हो ऐसा लगता है। जीयकप्पसुत्त (जीतकल्पसूत्र) ___ इसके रचयिता सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं। इस सूत्र में जैन श्रमणों के आचार के संबंध में प्रायश्चित का विधान है। प्रायश्चित का महत्त्व आत्म शुद्धि या अंत:परिष्कार की उपादेयता इन विषयों का प्रतिपादन किया गया है। __ प्रायश्चित्त दो शब्दों के योग से बनता है। प्रायः का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना।
'प्रायः नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्चते,
तपो निश्चय संयोगात् प्रायश्चितमितीर्यते'९९ अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित्त है। इसमें प्रायश्चित्त के दस भेदों का विवेचन है
१) आलोचना, २) प्रतिक्रमण, ३) मिश्र- आलोचना प्रतिक्रमण दोनों,
___४) विवेक , ५) व्युत्सर्ग, ६) तप, ७) छेद, ८ मूल अनवस्थाय्य १० पारांचिक। पिंडनिज्जुत्ति, ओहनिज्जुत्ति
पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति- पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है। प्रस्तुत ग्रंथ में आहार, एषणीयता, अनेषणीयता आदि के संदर्भ में उद्गम आदि दोष तथा श्रमण जीवन के आहार, भिक्षा आदि पहलुओं पर विशद विवेचन किया है।