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________________ 54 और वीरस्तव को सम्मिलित कर लिया गया है किंतु सस्तारक की परिगणना न कर उसके स्थान पर कहीं गच्छाचार और कहीं मरणसमाधि का उल्लेख करते हैं।९३ जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रंथों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उबुद्धचेता श्रमणों द्वारा आध्यात्म संबंध विविध विषयों पर रचे गये हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिन-जिन तीर्थंकरों को औत्पातिकी, वैनेयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी इन चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने भी शिष्य होते हैं, उनके भी उतने भी प्रकीर्णक ग्रंथ होते हैं। प्रत्येक बुद्ध प्रव्रज्या देनेवाले की दृष्टि से किसी के शिष्य नहीं होते पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्मशासन की प्ररूपणा करने की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तःवर्ती होने से वे औपचारिकता से तीर्थंकरों के शिष्य कहे जाते हैं अत: प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्रकीर्णक की रचना करना युक्ति संगत है। वर्तमान के मान्य दस प्रकीर्णकों में से एक-एक का संक्षिप्त परिचय यहाँ पर किया जा रहा है। १) चउसरण (चतुःशरण) प्रकीर्णक . जैन परंपरा में अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म को शरणभूत माना जाता है। इन्हीं चार शरण के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम चतुःशरण रखा गया।९४ इस प्रकीर्णक के आरंभ में षडावश्यक पर प्रकाश डाला गया है उसमें लिखा है। १) सामायिक आवश्यक से चारित्र की शुद्धि होती है। २) चतुर्विशंति जिनस्तवन से दर्शन की विशुद्धि होती है। ३) वंदना से ज्ञान में निर्मलता आती है। ४) प्रतिक्रमण से ज्ञान आदि रत्नत्रय की विशुद्धि होती है। ५) कायोत्सर्ग से तप की शुद्धि होती है और प्रतिक्रमण से चारित्र की शुद्धि न हुई हो उसकी शुद्धि कायोत्सर्ग से होती है। ६) पच्चक्खाण से वीर्य की विशुद्धि होती है। - तदन्तर तीर्थंकर की माता स्वप्न देखती हैं उसका उल्लेख करके महावीरस्वामी को वंदन करके चार शरण स्थानों का विस्तृत विवेचन किया गया है जिसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की महत्ता बताकर, उसका गुण कीर्तन कर, पूर्व किये पापों की निंदा और सुकृत्य का अनुमोदन किया है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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