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________________ 55 २) आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान) प्रकीर्णक यह प्रकीर्णक मरण से संबंधित है, इसके कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा गया है। इसमें बालमरण और पंडितमरण का विवेचन है, जिसकी स्थिति प्राय: आतुर अवस्था में बनती है। 'आतुर' शब्द सामान्यत: रोग ग्रस्त वाची है, संभव है इसी कारण इस प्रकीर्णक का नाम आतुरप्रत्याख्यान रखा है।९५ आउरपच्चक्खाण पइण्णय में यही कहा है।९६ इसमें लिखा है कि जो मृत्यु के समय धीर बनकर और आकुल व्याकुल न बनकर, प्रत्याख्यान करते हैं, वे मरकर उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं।९७ उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही कहा है।९८ इसमें प्रत्याख्यान को शाश्वत गति का साधन बताया गया है। ३) महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान) प्रकीर्णक . इस प्रकीर्णक में पाप और दुष्चरित्र की निंदा करते हुए उनके प्रत्याख्यान पर बल दिया है। त्याग या प्रत्याख्यान को जीवन को यथार्थ सफलता का परिपोषक माना गया है। इस आधारशिला पर धर्माचरण टीका है। त्याग के महान आदर्श की उपादेयता का इसमें विशेष रूप से उल्लेख होने से इसका नाम महाप्रत्याख्यान रखा हो ऐसा प्रतीत होता है। पौद्गलिक भोगों का मोह व्यक्ति को संयमित जीवन नहीं अपनाने देता। पौद्गलिक भोगों से प्राणी कभी तृप्त नहीं होता किंतु संसार वृद्धि होती है, इस विषय का विश्लेषण इसमें किया है तथा माया वर्जन, तितिक्षा एवं वैराग्य के हेतु पंच महाव्रत, आराधना आदि विषयों का विवेचन किया गया है। .४) भत्तपरिण्णा (भक्तपरिज्ञा) प्रकीर्णक जैन धर्म में भत्तपरिज्ञा अनशनपूर्वक मरण के भेद में से एक है। आतुरप्रत्याख्यान में रुग्णावस्था में साधक आमरण अनशन स्वीकार कर पंडित मरण प्राप्त करता है। भक्त परिज्ञा की स्थिति उससे थोडी भिन्न है, ऐसा प्रतीत होता है। इसमें दैहिक अस्वस्थता की स्थितिका विशेष संबंध नहीं है। सद्सद् विवेकपूर्वक साधक आमरण अनशन द्वारा देह त्याग करता है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्यान्य विषयों के साथ साथ भक्तपरिज्ञा का विशेष रूप से वर्णन है, इसलिए इस प्रकीर्णक का नाम भत्त-परिज्ञा रखा गया है। इसमें इंगित और पादोपगमन मरण का भी विवेचन है, जो भक्तपरिज्ञा की तरह विवेकपूर्वक अशन-त्याग द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मरण के भेद हैं। इस कोटि के पंडितमरण के ये तीन भेद माने गये हैं। दर्शन विशुद्धि को भी इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण बताया गया है। साधना की स्थिरता के लिए मनोनिग्रह की आवश्यकता का भी विवेचन है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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