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________________ 51 व्यवहारसूत्र और बृहत्कल्प की भाषा काफी प्राचीन है। इस सूत्र में कल्प-कल्प योग्य या कल्पनीय, अकल्प, अकल्पनीय स्थान, कपडे, पात्र उपकरण आदि का इसमें विवेचन है। इस कारण इसका नाम कल्प है। इसमें छह उद्देशक हैं। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि प्रत्याख्यान नामक नववें पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभृत में प्रायश्चित का विधान किया गया है। कालक्रम से पूर्वो का पठन-पाठन बंद हो गया, जिससे प्रायश्चित्तों का उच्छेद हो गया, अत: आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने बृहत् कल्पसूत्र और व्यवहार सूत्र की रचना की। तथा इन दोनों छेदसूत्रों पर नियुक्ति लिखी। बृहत् कल्प पर संघदासगणि क्षमाश्रमण ने लघु भाष्य की रचना की। भाष्य पर मलयगिरि ने विवरण लिखा, जो अपूर्ण रहा। जिसे लगभग सव्वा दो सौ वर्ष पश्चात् संवत् १३३२ में क्षेम कीर्ती सूरि ने पूर्ण किया। इसमें कल्पनीय एवं अकल्पनीय वस्तुओं के ग्रहण करने का और न करने का उल्लेख किया गया है। साधु-साध्वियों को किस प्रकार बोलना चाहिए। भोजन, पान आदि के संबंधित क्रिया, मर्यादा, नियम आदि विषयों का समीचीन रूप में वर्णन किया गया है।९१ आगम गृह सार्वजनिक स्थान, खुले हुए घर, घर के बाहर का चबूतरा, वृक्षमूल आदि के स्थानों में साध्वियों को रहने का निषेध है। इस प्रकार चारित्र पालन में उपयोगी नियमों का वर्णन है। ३) निशीथसूत्र छेदसूत्रों में निशीथ सूत्र सबसे बड़ा है। जिसका स्थान सर्वोपरि माना गया है। इसे आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध की पांचवी चूला मानकर आचारांग का ही एक भाग माना जाता है। इसे निशीथ चूला अध्ययन माना जाता है। इसका दूसरा नाम आचार कल्प है। निशीथ का अर्थ अर्धरात्रि या अप्रकाश कहा गया है, जैसे रहस्यमय विद्या, मंत्र एवं योग को प्रकट नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार निशीथ सूत्र को अर्धरात्रि के तुल्य अप्रकाश्य या गोपनीय रखना चाहिए, क्योंकि इसमें साधु-साध्वियों को उनके जीवन से संबंधित होनेवाली भूलों की जानकारी दी गई है, उन्हीं को जानना चाहिए तथा अपनी आत्मा का परिष्कार करना चाहिए। ___ यदि कोई साधु कदाचित् निशीथसूत्र को भूल जाये तो वह आचार्य पद का अधिकारी नहीं हो सकता। इस सूत्र में साधुओं के आचारसंबंधी उत्सर्गविधि और अपवाद विधि का तथा प्रायश्चित आदि का सूक्ष्म विवेचन है। ऐसा माना जाता है कि - नौवें प्रत्याख्यान नामक पूर्व के आधार पर इस सूत्र की रचना हुई।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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