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________________ 50 आचार्य के लिए छेदसूत्रों का गहन अध्ययन बताया गया है। इनका अध्ययन बिना आचार्य या उपाध्याय जैसे महत्त्वपूर्ण पदों का कोई अधिकारी नहीं हो सकता है। छेदसूत्र संक्षिप्त शैली में रचे गये हैं । १) व्यवहारसूत्र, २) बृहत्कल्पसूत्र, ३) निशीथ सूत्र, ४) दशाश्रुतस्कंध - ये चार छेद सूत्र माने जाते हैं । कतिपय विद्वानों ने निशीथसूत्र, महानिशीथ, व्यवहारसूत्र, दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र (बृहत्कल्प) तथा पंचकल्प - जीतकल्प, ये छह छेदसूत्र माने हैं। १) व्यवहारसूत्र व्यवहारसूत्र छेदसूत्रों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसे बारह अंगों का नवनीत कहा गया । इसके रचनाकार आचार्य भद्रबाहु थे। उन्होंने इस पर नियुक्ति की रचना की । व्यवहार सूत्र पर भाष्य भी प्राप्त होता है, किंतु उसके रचयिता का नाम अज्ञात है । मलयगिरि ने भाष्य . पर विवरण लिखा है, इस पर चूर्णि भी प्राप्त होती हैं, जो अप्रकाशित है। इसमें दस उद्देशक हैं। उनमें साधु द्वारा की गई भूलों के लिए प्रायश्चितों और त्रुटियों का विधान है। यदि कोई साधु गण को छोडकर चला जाये और फिर वापस चला आये तो उसे आचार्य, उपाध्याय आदि के समक्ष आलोचना, निंदा, गर्हा आदि से अपने को विशुद्ध करना चाहिए। यदि आचार्य, उपाध्याय आदि न मिले तो ग्राम, नगर निगम, राजधानी, आदि की पूर्व तथा उत्तर दिशा में अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रखे और मैंने ये अपराध किये हैं, इस तरह अपने अपराधों का कथन करता हुआ आलोचना करे। आचार्य एवं उपाध्याय के लिए हेमंत तथा ग्रीष्म ऋतुओं में एकाकी विहार करने का निषेध किया गया है। वर्षाकाल में दो साधुओं के साथ विहार करने का विधान है। स्थविरों से बिना पूंछे अपने पारिवारिकों, संबंधियों के यहाँ साधुओं के लिए भिक्षार्थ जाने का निषेध ग्राम आदि में जिस स्थल को एक दरवाजा हो, वहाँ अल्पश्रुतधारी बहुत से साधुओं के लिए रहने का निषेध है। एक आचार्य की मर्यादा में रहनेवाले साधु साध्वियों को पीठ पीछे व्यवहार न करके प्रत्यक्ष में मिलकर भूल आदि बताकर आपस में भोजन आदि का व्यवहार करना चाहिए ऐसा विधान किया गया है। इस प्रकार और भी विधि विधानों का उल्लेख है - जो प्रायश्चि एवं आलोचना आदि से संबंधित हैं । २) बृहत् कल्पसूत्र यह कल्प अथवा बृहत्कल्प या कल्पाध्ययन भी कहलाता है। जो पर्युषण में पढे जाने कल्पसूत्र से भिन्न है। यह जैन साधुओं का प्राचीनतम आचार शास्त्र है। निशीथसूत्र, वाले
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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