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व्रत, विधान, आचार मर्यादा आदि का वर्णन है। उन्हीं विषयों का उपांग आदि में अपनी अपनी पद्धति से विवेचन किया गया है। आचार या महाव्रतों का सम्यक् परिपालन जैन धर्म का सबसे मुख्य आधार है। आचार ही पहला धर्म है। आचार धर्म के अभाव में चाहे कितना ही शास्त्रज्ञान हो, प्रवचन कौशल्य हो, उनका कोई महत्त्व नहीं माना जाता। सबसे पहले मूल की रक्षा आवश्यक है। मूल के नाम से प्रसिद्ध सूत्रों में जैन धर्म मूल रूप आचार पर प्रकाश डाला गया है। एक साधु का आचार अखंडित रहे, उसमें जरा भी स्खलना न आये, इस ओर इन सूत्रों में विशेष ध्यान दिया गया है। इनका अध्ययन प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए अत्यंत आवश्यक माना जाता है।
पहले आगमों का अध्ययन आचारांग से शुरु होता था, परंतु जब से आचार्य शय्यंभव ने दशवैकालिक सूत्र की रचना की तब से सर्व प्रथम दशवैकालिक के अध्ययन करने की परंपरा शुरु हुई और उसके बाद उत्तराध्ययन आदि सिखाया जाता है।८६ १) दशवैकालिकसूत्र
यह पहला मूलसूत्र है। ऐसी मान्यता है कि- काल से निवृत्त होकर अर्थात् दिन के अपने सभी कार्यों को भलीभांति संपन्न कर, विकाल में संध्याकाल में इसका अध्ययन किया जाता था. इसलिए यह दशवैकालिक कहा गया है। इसकी रचना के बारे में जैन समाज में एक कथानक प्रचलित है।
शय्यंभव नामक एक ब्राह्मण विद्वान थे। जिन्होंने कालांतर में जैन श्रमण दीक्षा स्वीकार की। उनका मनक नामक बालक पुत्र भी उनके पास दीक्षित हो गया। अपने विशिष्ट ज्ञान द्वारा शय्यंभव ने यह जाना कि- बालक मनक का आयुष्य छह महिने का है। उसे श्रुत का बोध कराने हेतु आगमों के सार रूप में दशवैकालिक सूत्र की रचना की। बालक ने उसका अध्ययन कर आत्मकल्याण किया।
इस सूत्र में दस अध्ययन हैं। अंत में दो चूलिकायें हैं। ऐसा माना जाता है कि- इन दोनों चूलिकाओं की रचना आचार्य शय्यंभव ने नहीं की ये बाद में मिलाई गई हैं। आचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति की रचना की। अगस्त्यसिंह और जिनदासगणि महत्तर ने चूर्णि लिखी। आचार्य हरिभद्रसूरि ने टीका की रचना की। दशवैकालिकसूत्र में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से आत्मा के पूर्ण विकासक्रम का वर्णन है।
तिलकाचार्य, सुमतिसूरि तथा विनय हंसादि विद्वानों ने इस पर वृत्तियाँ लिखीं। यापनीय संघ के आचार्य अपराजितसूरि ने जो विजयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे; इस पर उन्होंने विजयोदयानामक टीका लिखी।