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स्थित भरतक्षेत्र का वर्णन है। अनेक पर्वत, गुफायें, नदियाँ, दुर्गम स्थान, अटवी आदि का भी वर्णन है।
दूसरे वक्षष्कार में उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के छह छह भेदों का विवेचन हैं। सुषमदुषमा नामक तीसरे काल में पंद्रह कुलकर हुए। उनमें नाभि कुलकर की मरूदेवी नामक पत्नी से आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ। वे कोशलदेश के निवासी थे। प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर तथा प्रथम धर्मवर चक्रवर्ती-धर्म पर चतुर्गत चक्रवर्ती कहे जाते थे। ___उन्होंने कलाओं एवं शिल्पों का उपदेश दिया। तदनंतर अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर उन्होंने श्रमण धर्म में प्रव्रज्या स्वीकार की। उन्होंने अपने तपोमय जीवन में अनेक उपसर्ग कष्ट सहन किये। पुरिमताल नामक नगर के उद्यान में उन्हें केवलज्ञान हुआ। अष्टापद पर्वत पर उन्होंने सिद्धि प्राप्त की। तीसरे वक्षष्कार में भरतचक्रवर्ती और उनकी दिग्विजय का विस्तार से वर्णन है। अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती को निर्वाण प्राप्त हुआ।
आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीका लिखी, किंतु वह लुप्त हो गई। उसके बाद इस पर और टीकायें लिखी गईं। बादशाह अकबर ने जिनको गुरु रूप में आदर दिया। उन आचार्य हरिविजयसूरि के शिष्य शांतिचंद्र वाचक ने वि. स. १६५० में इस सूत्र पर प्रमेयरत्नमंजूषा नामक टीका लिखी। ७) सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति . . ये छठे-सातवें उपांग हैं। यद्यपि ये दो ग्रंथ माने जाते हैं किन्तु इनमें सारी सामग्री एक जैसी है। सूर्य, चंद्र, नक्षत्रों आदि का इसमें विस्तार से वर्णन है। सूर्य प्रज्ञप्ति के प्रारंभ में मंगलाचरण की चार गाथायें हैं चंद्रप्रज्ञप्ति में वे नहीं हैं। शेष सामग्री में कुछ भी अंतर नहीं है। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इनमें से एक आगम लुप्त हो गया। उपांगों की संख्या पूर्ति की दृष्टि से दो आगमों की मान्यता प्रचलित हुई। आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाकी रचना की। ८) निरयावलिका-कल्पिका ___इसमें १) निरयावलिका, २) कल्पिका, ३) कल्पावतंसिका, ३) पुष्पिका, ४) पुष्पचूलिका तथा ५) वृष्णिदशा इन पाँच अंगों का समावेश है। ऐसा माना जाता है कि पहले ये पाँचों एक ही सूत्र के रूप में माने जाते थे। किंतु आगे चलकर बारह अंगों और उपांगों का संबंध जोडने के लिए इन्हें पृथक् पृथक् गिना जाने लगा।८५ इनमें आर्य जंबू के प्रश्न और गणधर सुधर्मा के उत्तर हैं।