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________________ 43 ये छह अंग माने गये हैं। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र ये उपांग माने गये हैं। जैन परंपरा में भी बारह उपांगों की तरह बारह अंगों की भी मान्यता है किन्तु प्राचीन आगम ग्रंथों में इस संबंध में उल्लेख प्राप्त नहीं होता। अंगों की रचना या संग्रंथ गणधरों द्वारा की गई और उपांगों की रचना स्थविरों ने की। विषय आदि की दृष्टि से इनका कोई विशेष संबंध प्रतीत नहीं होता। जैसे अंगों में सामान्यत: तत्त्व और आचार का वर्णन है। उपांगों में भी उसी विषय पर भिन्न भिन्न रूपों में चर्चा की गई है। आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने बारहवीं शताब्दि के पूर्व हुए आचार्य श्रीचंद्र और तेरहवी शताब्दी के बाद के और चौदहवी शताब्दी के प्रथम चरण में हुए आचार्य जिनप्रभ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- अंगबाह्य को उपांग के स्वरूप में स्वीकार किया है।८४ १) औपपातिकसूत्र यह पहला उपांग है। उपपात का अर्थ जन्म या उत्पत्ति होता है। इससे औपपातिक शब्द बना है। इस आगम में देवों तथा नारकों में जन्म लेने का अथवा साधकों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का वर्णन है। इसलिए यह औपपातिक कहा जाता है। . गणधर गौतमस्वामी ने जीव, अजीव, कर्म आदि के संबंध में भगवान महावीर से प्रश्न किये। भगवान महावीर ने उत्तर दिये। इस प्रकार तत्त्वज्ञान संबंधी, अनेक विषय इसमें हैं। भगवान महावीर के समय में जो जैनेत्तर संप्रदाय प्रचलित थे। उन वानप्रस्थी तापसों, श्रमणों परिव्राजकों, आजीविकों तथा निन्हवों का भी वर्णन प्राप्त होता है। ___इसमें नगर, राजा आदि का जो वर्णन है वह सामान्य है। दूसरे आगमों में जहाँ भी ये विषय आते हैं वहाँ प्राय: औपपातिक सूत्र में आये हुए वर्णनों से लेने का संकेत है। २) राजप्रश्नीयसूत्र यह दूसरा उपांग है। इसमें परदेशी (प्रदेशी) राजा और भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के मुनि केशीकुमार श्रमण के प्रश्रोत्तर हैं। परदेशी राजा नास्तिक था। आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि में विश्वास नहीं करता था। केशीकुमार श्रमण ने न्याय और युक्तिपूर्वक तत्त्व समझाये। परदेशी राजा के विचार में परिवर्तन आया और नास्तिक से आस्तिक बन गये। इस सूत्र में कला, शिल्प आदि का वर्णन है। ७२ कलाओं का उल्लेख है। कंबोज देश के अश्व आदि का वर्णन है। आचार्य मलयगिरि ने बारहवीं शताब्दी में इस पर टीका की रचना की।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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