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________________ 42 आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि म. ने प्रश्नव्याकरण सूत्र की प्रस्तावना में लिखा है कि, वर्तमान प्रश्रव्याकरण भगवान महावीर के प्रश्रों के उत्तरों का आंशिक भाग है।८३ ११) विपाकसूत्र विपाक का अर्थ फल या परिपाक है। इसमें पापों और पुण्य के विपाक या फल का वर्णन है। इसलिए यह विपाक के नाम से प्रसिद्ध है। स्थानांग के अनुसार इसमें दस अध्ययन हैं। जो दो श्रुतस्कंधों में विभाजित हैं। पहला श्रुतस्कंध दुःख विपाक, और दूसरा सुख विपाक के नाम से प्रसिद्ध है। कर्म सिद्धांत जैन दर्शन का मुख्य सिद्धांत है। उसका दार्शनिक विश्लेषण उदाहरणों द्वारा इस आगम में दिया है। पहले विभाग में दुष्कर्म करनेवाले व्यक्ति के जीवन का वर्णन है। हिंसा, चोरी, अबह्मचर्य इत्यादि दुष्कर्मों से भयंकर अपराध करते हैं। अपने दुष्कर्म के कारण उनको कर्म फल भोगना पडता है। इसमें पाप के कटुफल दिखाकर विश्व को संदेश दिया कि बुरे कर्मों का फल बुरा मिलता है यह जानकर बुरे कर्मों को त्यागना चाहिए। विपाकसूत्र के दूसरे विभाग में सत्कर्म करने वाले व्यक्तियों के जीवन का वर्णन है जिन्होंने अपने कर्मों को क्षय कर मोक्ष प्राप्त किया है। यह वर्णन इस सूत्र में आया है। गणधर गौतम संसार के बहुत से दुःखित लोगों को देखकर भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं तथा भगवान महावीर उसके उत्तर देते हैं। पाप कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राणी किस प्रकार कष्ट पाते हैं? तथा पुण्यों के परिणाम स्वरूप सुख भोगते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ इस सूत्र में विषद् विवेचित हैं। आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर टीका की रचना की। इस प्रकार आचार्य अभयदेवसूरि ने तृतीय अंग सूत्र समवायांग सूत्र से लेकर विपाक सूत्र तक नौ अंगों की टीकायें लिखी। इसलिए जैन जगत् में नवांगी टीकाकार के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसे पहले सूचित किया गया है, बारहवाँ अंग दृष्टिवाद लुप्त हो गया, इसलिए उसका संकलन नहीं किया जा सका। १२) दृष्टिवाद यह बारहवा अंग हैं। दृष्टि का अर्थ दर्शन तथा वाद का अर्थ चर्चा या विचार विमर्श है। इसमें विभिन्न दर्शनों की चर्चा रही होगी। दृष्टिवाद इस समय लुप्त है। उपांग परिचय _ 'उप' उपसर्ग समीप का द्योतक है। जो अंगों के समीप होते हैं अर्थात् उनके पूरक होते हैं वे उपांग कहलाते हैं। चार वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त तथा ज्योतिष
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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