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________________ सादगी और बुद्धिमत्ता प्रगट होती है। अन्य श्रावकों का जीवन भी बहुत उन्नत था। धर्म पालन में विध्न आने पर भी उन्होंने धर्म का परित्याग नहीं किया। आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर टीका की रचना की। ८) अन्तकृत्दशांगसूत्र जैसे उपासकदशांग सूत्र में उपासकों की कथायें हैं। उसी प्रकार इसमें संसार का अंत करने वाले केवलियों की कथायें हैं, इसलिए इसका नाम अन्तकृत्दशांग सूत्र है। इसमें जो कथायें आयी हैं, वे प्राय: एक जैसी शैली में लिखी गई हैं। वहाँ कथाओं के कुछ अंश का ही वर्णन किया गया है। बाकी के अंश व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र से या ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र से लेने का संकेत किया गया है। इसमें श्रेणिक की कालि आदि रानियों द्वारा की हुई तपस्या का वर्णन है।८° इसमें कुल नब्बे मोक्षगामी जीवों का वर्णन है। ९) अनुत्तरौपपातिकसूत्र ये नववा अंग है। इसमें अपने पुण्यप्रभाव से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट महापुरुषों का वर्णन है। इसमें उपासकदशांग और अंतकृत्दशांग की तरह इसमें भी पहले भी दस अध्ययन थे, किन्तु अब कुल तीन वर्ग बाकी रह गये हैं। सर्वत्र एक सी शैली है। इसमें कांकदी नगरी के धन्ना सेठ के दीक्षा ग्रहण कर अत्यंत कठिन तपस्या कर शरीर दमन किया, वे एकावतारी होकर मोक्ष जायेंगे यह सारा वर्णन इसमें है। आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी।८१ १०) प्रश्नव्याकरणसूत्र यह दशवा अंग है। प्रश्र तथा व्याकरण इन दो शब्दों से बना है। प्रश्र का अर्थ पूछना या जिज्ञासा करना है। व्याकरण का अर्थ व्याख्या करना या उत्तर देना है। वर्तमान काल में इस सूत्र का जो हमें रूप प्राप्त होता है उसमें कहीं भी प्रश्नोत्तर नहीं हैं। केवल आस्रवद्वार और संवरद्वार रूप में वर्णन प्राप्त होता है।८२ आस्रवद्वार में प्राणातिपातविरमण आदि पांच संवरों का वर्णन है। स्थानांग और नंदीसूत्र में प्रश्रव्याकरण सूत्र में विषयों का जो उल्लेख हुआ है। वर्तमान में इस सूत्र का जो रूप उपलब्ध है, उसमें वे विषय प्राप्त नहीं होते, ऐसा प्रतीत होता है कि इसका प्राचीन रूप विच्छिन्न हो गया। वर्तमान रूप में हिंसादि आस्रव द्वारों का तथा अहिंसादि संवर द्वारों का जो वर्णन इसमें प्राप्त होता है। वह हिंसा, अहिंसा आदि तत्त्वों को विषद रूप में समझने में बहुत उपयोगी है। आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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