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स्थिति दो प्रकार की, वेदनीय कर्म की स्थिति, आयुष्यबंध के संबंध में प्ररुपणा, पांच ज्ञान का स्वरूप, कर्म प्रकृति के संबंध में निर्देश, कर्म और आत्मा का संबंध एफपथिक और सांपरायिक क्रिया संबंधी चर्चा, कर्मफल वेदना, अल्पायु और दीर्घायु के कारणभूत कर्मबंध के कारणों का निरुपण, अल्पायु और दीर्घायु के कारणों का रहस्य आदि कर्म संबंधी अनेक विषयों का निरुपण है।
अंग, बंग, माल्य, मालवय आदि सोलह जनपदों का इसमें उल्लेख मिलता है। इस सूत्र में जैन सिद्धांत, आचार और इतिहास संबंधी इतना विस्तार से वर्णन है कि इस एक आगम के अध्ययन से अध्येता को जैन धर्म का यथेष्ट ज्ञान हो सकता है। इस पर आचार्य अभयदेव सूरि ने टीका लिखी है। ज्ञाताधर्मकथासूत्र __यह छट्ठा अंग है। इसको 'नायधम्मकहा' ज्ञातधर्मकथा भी कहा जाता है। ज्ञात का अर्थ है उदाहरण, इसमें उदाहरण और धार्मिक कथायें हैं। धर्म के सिद्धांत आचार आदि का इसमें विवेचन है। विद्वानों ने भाषा, वर्णन, शैली आदि की दृष्टि से इसे प्राचीनतम आगमों में माना है।
इसमें दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध में उन्नीस अध्ययन हैं और दूसरे में दस वर्ग हैं। आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी। ७) उपासकदशांगसूत्र
यह सातवां अंग है। अंग सूत्रों में यह एक ऐसा आगम है जिसमें श्रावकों के जीवन का, व्रतों का विस्तार से विवेचन है। इसमें दश अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन में एक एक श्रावक का जीवन वृत्तांत दिया गया है।
इसमें प्रथम अध्ययन में आनंद श्रावक का वृत्तांत है। जो भगवान महावीर का परम भक्त था। उसकी संपत्ति, परिवार, व्यापार, रहन, सहन आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। जिनमें हमें उस समय के लोक जीवन का परिचय प्राप्त होता है। यह भी ज्ञात होता कि विपुल संपत्ति के स्वामी होते हुए भी धर्म के प्रति बहुत आकृष्ट रहते थे। धर्माचरण और धर्मोपासना में रुचि लेते थे। उनके जीवन में धार्मिकता, पारिवारिकता, सामाजिकता का बडा सुंदर समन्वय था।
__ भगवान महावीर से आनंद श्रावक ने जिस प्रकार व्रत ग्रहण किये वह प्रसंग बडा ही उद्बोधप्रद है। वहाँ प्रत्येक व्रत का तथा उसके अतिचारों का विशद वर्णन किया है। आनंद श्रावक ने संपत्ति, भोगोपभोग आदि में जो अपवाद रखे, उनमें उसके जीवन की सरलता,