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स्थानांग सूत्र में दस अध्ययन हैं तथा ७८३ सूत्र हैं । आचार्य अभयदेवसूरि ने इस पर संस्कृत में टीका लिखी। ४) समवायांगसूत्र
__ यह चौथा अंग हैं। स्थानांग सूत्र की तरह इसमें भी संख्याओं के आधार पर वर्णन है। स्थानांग सूत्र में दस तक की संख्या ली गई है। इसमें एक से लेकर कोटानुकोटी संख्या तक की वस्तुओं का उल्लेख है। द्वादशांगी की संक्षिप्त हुण्डी भी इसमें उल्लेखित है। ज्योतिषचक्र दंडक शरीर, अवधिज्ञान, वेदना, आहार, आयुबंध, संहनन, संस्थान, तीनों कालों के कुलकर, वर्तमान चौबीसी, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि नाम उनके मातापिता के पूर्व भव के नाम तीर्थंकरों के पूर्व भवों के नाम तथा ऐरावत क्षेत्र की चौबीसी आदि के नाम भी बतलाये गये हैं। यह गहन ज्ञान का खजाना है। अभयदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी। इस सूत्र में धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, कषाय, कर्म प्रकृति वेदन दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, मोहनीय कर्म की सत्ता, कर्मविपाक, मोहनीय कर्म प्रकृति की स्थिति आदि विषयों का निरुपण है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र)
व्याख्या का अर्थ विश्लेषण और प्रज्ञप्ति का अर्थ प्ररूपणा होता है। इस सूत्र में जीवादि व्याख्याओं की प्ररूपणा या विवेचन है। इसलिए इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है।
ये व्याख्यायें प्रश्नोत्तरों के रूप में हैं। इस पांचवे अंग में एक श्रुतस्कंध है, ४१ शतक और १००० उद्देशक हैं। इसमें छत्तीस हजार प्रश्नोत्तर हैं। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम भगवान से जैन सिद्धांतों के बारे में प्रश्न करते हैं।
इस सूत्र में कुछ ऐसे भी संवाद हैं जिनमें अन्य मतवादियों के साथ भगवान महावीर का वाद-विवाद या वार्तालाप उद्धृत है। इस सूत्र में ऐसे प्रसंग भी हैं जिससे भगवान महावीर के विषय में ज्ञात होता है। इसमें भगवान के लिए वेसालिय सावय- वैशालिक श्रावक शब्द आया है। जिससे यह प्रकट होता है कि भगवान महावीर वैशाली के थे। अनेक स्थलों पर ऐसे वर्णन आते हैं जहाँ भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यों ने चातुर्याम धर्म को छोडकर भगवान महावीर के पंच महाव्रत धर्म को अंगीकार किया।
इस सूत्र में गोशालक का विस्तार से वर्णन है। नौ मल्ली और नौ लिच्छवी गण राज्यों का इसमें उल्लेख है। उदायन, मृगावती, जयंती आदि भगवान महावीर के अनुयाइयों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र प्रथम खंड के प्रथम उद्देशक में अपर्वन, संक्रमण, निघत्त, निकाचना आदि का वर्णन आया है। अष्ट कर्मों की बंध स्थिति, कर्म की