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________________ इरिया अध्ययन में साधु के विहार या विचरण विषयक नियमों का विवेचन है। बताया गया है कि- देश की सीमा पर निवास करनेवाला अकालचारी- बिना समय घूमने वाला अकालभक्षी, बिना समय चाहे खानेवाला- दष्यु-डाकु, म्लेच्छ और अनार्य देशों में साधुसाध्वियों को विचरण नहीं करना चाहिए। ये सात अध्ययन प्रथम चूलिका के अन्तर्गत हैं। द्वितीय चूलिका में भी स्वाध्याय स्थान आदि के संबंध में साधु-साध्वियों के नियमों का विधान है। तीसरी चूलिका में भगवान महावीर का चरित्र तथा महाव्रतों की पाँच भावनाओं का तथा मोक्ष का वर्णन है। ___इस सूत्र में कर्म सिद्दांत का वर्णन इस प्रकार है। आस्रव, संवर, बोध, संसार का मूल आसक्ति, बंध मोक्ष परिज्ञान कषायविजय, सम्यग्ज्ञान : आस्रव, सम्यक्तप : दुःख एवं कर्मक्षयविधि, सम्यक्चारित्र : साधना के संदर्भ में, आरंभ कषाय पद, कर्मबंध और मुक्ति, मोहाछन्न जीव की करुणदशा, कर्ममल की शुद्धि की प्रेरणा और कर्मअंत करने की प्रेरणा आदि विषयों का वर्णन इस शास्त्र में आया है। . इस सूत्र पर आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति, जिनदासगणी महत्तर ने चूर्णि और आचार्य शीलांक ने टीका की रचना की। जिनहंस नामक आचार्य ने इस पर दीपिका लिखी। जर्मन के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हर्मन जेकोबी ने इसका अंग्रजी में अनुवाद किया और इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी। सबसे पहले आचारांग सूत्र में प्रथम-श्रुतस्कंध सन् १९१० में प्रोफेसर वोल्टर ने सूत्रींग नामक जर्मन विद्वान द्वारा संपादन किया गया तथा जर्मनी में 'लिपजग' में प्रकाशन हुआ। २) सूत्रकृतांगसूत्र सूत्रकृतांग सूत्र में स्वसमय अपने तथा जैन धर्म के सिद्धांतों तथा परसमय अन्य मतवादियों के सिद्धांतों का वर्णन है। इसमें दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध में पंचभूतवादी, अद्वैतवादी, जीव और शरीर को अभिन्न मानने वाले, जीव पुण्य और पाप का कर्ता नहीं है, ऐसा मानने वाले, पांच भूतों के साथ छट्ठा आत्मा है, ऐसा स्वीकार करने वाले, कोई भी क्रिया फल नहीं देती ऐसा मानने वालों के सिद्धांतों का विवेचन है। इस शास्त्र में बंध मोक्ष स्वरूप, कर्म विपाक दर्शन कर्म विदारक वीरों को उपदेश, सम्यग्दर्शन में साधक बाधक तत्त्व, मोक्ष प्राप्ति किस को सुलभ और किसको दुर्लभ, मोक्ष प्राप्त पुरुषोत्तम और शाश्वत स्थान प्रत्याख्यान क्रियारहित सदैव पापकर्म बंधकर्ता क्यों और कैसे बंध और मोक्ष आस्रव, संवर, निर्जरा आदि का निरुपण किया है। नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद एवं लोकवाद का इसमें खण्डन किया गया है। वैताढ्य अध्ययन में शरीर के अनित्यत्व, उपसर्ग, सहिष्णुता, काम परित्याग और
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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