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आगमों का विस्तार
ग्यारह अंगों के अतिरिक्त जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। उपांग, मूल, छेद के रूप में अन्य ग्रंथ भी प्राप्त होते हैं जो अंगों से संबंधित हैं। इस प्रकार अंग और अंगबाह्य के रूप में जैन आगमों का विस्तार हुआ। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि- ये आगम श्वेतांबर परंपरा में मान्य हैं। श्वेतांबरों में इनकी संख्या के विषय में एक समान मत नहीं हैं। कोई इनकी संख्या ८४, कोई इनकी संख्या ४५, और कोई ३२ मानते हैं। श्वेतांबर मंदिरमार्गी संप्रदाय में ४५ एवं ८४ की संख्या भिन्न-भिन्न गणों में मान्य हैं। अंग, उपांग, छेद, मूल के अतिरिक्त जो आगम माने जाते हैं। उन्हें प्रकीर्णक कहा जाता है। आगम: अनुयोग
आगमों में आये हुए विषय- अंग, उपांग, छेद, मूल, सिद्धांत, भेद, तत्त्व आदि की दृष्टि से हैं। आचार्य आर्यरक्षितसूरि ने उनका चार अनुयोगों में विभाजन किया है। १) चरणकरणानुयोग, २) धर्मकथानुयोग, ३) गणितानुयोग, ४) द्रव्यानुयोग ।६२ नमस्कार चिंतामणी,६३ दशवैकालिक नियुक्ति,६४ आवश्यक नियुक्ति६५और विशेषावश्यकभाष्यफ६ में भी यही कहा है। __अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग अथवा सूत्र का अपने अभिध्येय में जो योग होता है, उसे अनुयोग जानना चाहिए।६७ १) चरणकरणानुयोग
इसमें आत्मा के उत्थान के मूलगुण, आचार, व्रत, उत्तरगुण, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र, संयम, वैयावृत्य, कषाय, निग्रह, आहार विशुद्धि, समिति, गुप्ति, भावना इंद्रियनिग्रह, प्रतिलेखन आदि का विवेचन है।
इसमें आचारांग तथा प्रश्नव्याकरण ये दो अंगसूत्र, दशवकालिक यह एक मूलसूत्र, निशीथ, व्यवहार, बृहत् कल्प एवं दशाश्रुत स्कंध ये चार छेद सूत्र तथा आवश्यक इस प्रकार कुल आठ सूत्र आते हैं। २) धर्मकथानुयोग - इसमें दान, शील, तप, भावना, दया, क्षमा, आर्जव, मार्दव आदि धर्म के अंगों का विशेष रूप से कथानकों के माध्यम से विवेचन किया गया है। इसमें कथा, आख्यान, उपाख्यान द्वारा धार्मिक सिद्धांतों का विवेचन है। इसके अन्तर्गत ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा तथा विपाक ये पांच अंगसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा ये सात उपांगसूत्र एवं उत्तराध्ययन सूत्र यह एक