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________________ 33 ध्यान की साधना कर रहे थे। उनसे पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने हेतु संघने १५०० मुनियों को उनके पास नेपाल भेजा। ५०० मुनि पढ़ने वाले थे। १००० मुनि उनकी सेवा हेतु थे। अध्ययन चालु हुआ। अध्ययन की कठिनता से घबराकर स्थूलभद्र के अतिरिक्त बाकी सब मुनि वापस लौट आये। . स्थूलभद्र ने दस पूर्वो का अर्थ सहित अध्ययन कर लिया, किंतु किसी त्रुटी के कारण आचार्य भद्रबाहु ने चार पूर्वो का केवल पाठ रूप में अध्ययन करवाया, अर्थ नहीं बताया। इस प्रकार स्थूलभद्र दश पूर्वो के परिपूर्ण ज्ञाता थे तथा चार पूर्वो का केवल पाठ जानते थे। आगे चलकर धीरे-धीरे पूर्वो का ज्ञान लुप्त होता गया। आगम युग जैन दर्शन५३, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज५४, उपासकदशांग सूत्र,५५ जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा५६, जैन तत्त्वप्रकाश और नमस्कार महिमा५८ में यही बात कही गयी है। द्वितीय वाचना ऐसा माना जाता है कि - भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ८२७ और ८४० वर्ष के बीच आगमों को व्यवस्थित करने का एक और प्रयास चला क्योंकि उस समय भी पहले की तरह एक भयानक अकाल पडा था, जिससे भिक्षा के अभाव में अनेक साधु देवलोक हो । गये। मथुरा में आर्य स्कंदिल की प्रधानता में साधुओं का सम्मेलन हुआ। जिसमें आगमों का संकलन किया गया। ___ इसी समय के आसपास सौराष्ट्र में वल्लभी में भी आचार्य नागार्जुनसूरि के नेतृत्त्व में साधुओं का वैसा ही सम्मेलन बुलाया गया। मथुरा में और वल्लभी में हुए इन दोनों सम्मेलनों को द्वितीय वाचना कहा जाता है। तृतीय वाचना धीरे-धीरे लोगों की स्मरण शक्ति कम होने लगी। इसलिए भगवान महावीर के निर्वाण के ९८० या ९९३) वर्ष के बाद सौराष्ट्र के अर्न्तगत वल्लभी में देव/गणी क्षमाश्रमण नामक आचार्य के नेतृत्व में सम्मेलन हुआ। आगमों का मिलान और संकलन किया गया। उस समय यह विचार आया कि धीरे-धीरे मनुष्यों की स्मरण शक्ति कम होती जा रही है, इसलिए समस्त आगमों को कंठस्थ रखना कठिन होगा। तब आगमों को लिपिबद्ध या लेखन बद्ध करने का निर्णय लिया गया। तदनुसार आगमों का लेखन हुआ। दृष्टिवाद तो पहले से लुप्त था। उसे विच्छिन्न घोषित किया गया। मूल और टीका में अपने को 'वायणंतरे पुण अथवा नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' ऐसा उल्लेख मिलता है।५९ आज हमें जो आगम प्राप्त हैं वे तीसरी वाचना में लिखे गये थे।६० आगम युग का जैन दर्शन६१ में भी यही बात कही है। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि भगवान महासीर की वाणी आज भी हमें प्राप्त है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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