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________________ 32 आगमों का महत्त्व जैन आगम साहित्य भारतीय साहित्य की अनमोल उपलब्धि है। अनमोल निधि है। ज्ञान, विज्ञान का अक्षय भंडार है। आगम शब्द 'आ' उपसर्ग 'गम्' धातु से बना है। आ याने 'पूर्ण' और 'गम्' का अर्थ 'गति' या प्राप्ति इस प्रकार होता है। आचारांग सूत्र में४५ आगम शब्द 'जानना' इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। साहित्य और संस्कृति में भी यही कहा है४६ भगवती सूत्र७ अनुयोगद्वार४८ और स्थानांगसूत्र९ में आगम शब्द 'शास्त्र' इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मूर्धन्य महामनिषियों ने आगम शब्द की अनेक परिभाषाएँ लिखी हैं। स्याद्वादमञ्जरी की टीका५० में आगम की परिभाषा इस प्रकार की है- 'आप्त वचन आगम है।' उपचार से आप्त वचनों से अर्थ ज्ञान होता है। वह आगम है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जिससे पदार्थों की परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान होता है वही आगम है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण५१ इन्होंने आगम की परिभाषा देते हुए लिखा है कि- जिसके द्वारा सत्यशिक्षा मिलती है। वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहा जाता है। - आगम केवल अक्षर रूपी देह से विशाल और व्यापक ही नहीं, लेकिन ज्ञान और विज्ञान के, न्याय और नीति के, आचार और विचार के, धर्म और दर्शन के, अध्यात्म और अनुभवों के अनुपम और अक्षय कोष हैं। वैदिक परंपरा में जो स्थान वेद का हैं, बौद्ध परंपरा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुराण का है, पारसी धर्म में जो स्थान अवेस्ता का है, शिखधर्म में जो स्थान गुरु ग्रंथ साहेब का है, वही स्थान जैन परंपरा में आगम साहित्य का है।५२ आगमों का संकलन प्रथम वाचना जैन परंपरा में ऐसा माना जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (३६७ इ. स. पूर्व) चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में भयंकर अकाल पडा। साधु इधर उधर बिखर गये। संघ को चिंता हुई कि- आगमों का ज्ञान यथार्थ रूप में चलता रहे, इसका प्रयास किया जाये। दुष्काल समाप्त हो जाने पर पाटली पुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में साधुओं का एक सम्मेलन किया गया। साधुओं ने अंग आगम के पाठ का मिलान किया। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद किसी को भी याद नहीं था। इसलिए उसका संकलन नहीं हो सका। दृष्टिवाद में पूर्वो का ज्ञान था। आगमों के संकलन का यह पहला प्रयास था। इसे आगमों की प्रथम वाचना कहा जाता है। उस समय चतुर्दश पूर्व के धारक केवल आचार्य भद्रबाहु थे। वे नेपाल देश में महाप्राण
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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