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समझती थी। अत: भगवान महावीर ने धर्मोपदेश के माध्यम के रूप में अर्धमागधी को अपनाया. क्योंकि उसे सभी लोग समझ सकते थे।४२ समझकर वे उसका लाभ उठा सकते थे। कहा गया है कि- बालको, स्त्रियों, वृद्धों तथा अशिक्षितों सभी लोगों के उपकार के लिए जो चारित्र मूलक धर्म को जानना चाहते थे; भगवान ने प्राकृत भाषा में धर्मोपदेश देने का अनुग्रह किया।४३ नवकार प्रभावना में भी यही कहा है।४४ भगवान महावीर द्वारा धर्मदेशना
भगवान महावीर ने केवलज्ञान-सर्वज्ञत्व, प्राप्त करने के बाद धर्मदेशना दी। वे अर्थरूप में उपदेश देते थे। उनके प्रमुख शिष्य गणधर शब्द रूप में उसका संकलन करते थे। भगवान महावीर के द्वारा जो उपदेश शब्द रूप में संकलित किया गया वह ग्यारह अंगों का अंगसूत्रों के रूप में इस प्रकार हैग्यारह अंग
१) आचारांगसूत्र , २) सूत्रकृतांगसूत्र, ३) स्थानांगसूत्र, ४) समवायांगसूत्र, ५) भगवतीसूत्र, ६) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, ७) उपासकदशांगसूत्र, ८) अन्तकृतांगसूत्र, ९) अनुत्तरोपपातिक दशा, १०) प्रश्रव्याकरणसूत्र,
११) विपाकसूत्र। बारह उपांग
१) औपपातिकसूत्र, २) राजप्रश्नीयसूत्र, ३) जीवाजीवाभिगमसूत्र, ४) प्रज्ञापनासूत्र, ५) जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, ६) चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्र, ७) सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र, ८) निरियावलियासूत्र, ९) कल्पावतंसिकासूत्र,
१०) पुष्पिकासूत्र, ११) पुष्पचूलिकासूत्र, १२) वृष्णिदशासूत्र। चार मूलसूत्र
१) दशवैकालिकसूत्र, २) उत्तराध्ययनसूत्र, ३) नंदीसूत्र,
४) अनुयोगद्वारसूत्र। चार छेदसूत्र
१) व्यवहारसूत्र, २) बृहत्कल्पसूत्र,
३) निशीथसूत्र, ४) दशाश्रुतस्कंध और ३२वाँ आवश्यकसूत्र। इस प्रकार ३२ आगम हैं। प्राचीन काल में शास्त्रों का ज्ञान कंठस्थ कर याद रखा जाता था। गुरु अपने शिष्यों को सिखाते थे। आगे चलकर वे शिष्य अपने शिष्यों को बताते थे। इस प्रकार वह परंपरा श्रवण या सुनने के आधार पर उत्तरोत्तर चलती रही। इसी कारण उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है।