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________________ 30 शब्दरूप में संकलन करते हैं। इस प्रकार सूत्र का प्रवर्तन प्रसार होता है।३६ - आचार्य श्री पूज्य देवेंद्रमुनिजी महाराज ने जैनागम साहित्य नामक विशाल ग्रंथ में आगम साहित्य का महत्त्व, आगम के पर्यायवाची शब्द, आगम की परिभाषा इत्यादि विभिन्न पक्षों को लेते हुए विद्वान आचार्यों के मन्तव्यों का विस्तार से विवेचन किया है, जिससे अध्येताओं को इस संबंध में यथेष्ट परिचय मिलता है।३७ वर्तमान काल में हमें जो आगम प्राप्त हैं, ये भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित हैं। ऐसी जैन परंपरा में मान्यता है। यहाँ आगमों के संबंध में संक्षेप में चर्चा करना आवश्यक है। आगमों कीभाषा ___ भाषा का जीवन में बहुत महत्त्व है। वही अभिव्यक्ति का साधन है। यदि भाषा नहीं होती तो मनुष्य अपने भावों को कभी भी व्यक्त नहीं कर सकता था। भाषा ही वह कारण है जिससे आज हम अतीत के महापुरुषों और महान चिंतकों के विचारों से लाभान्वित हो रहे हैं। उन्होंने भाषा द्वारा अपने-अपने समय में जो भाव प्रगट किये वे आगमों में, शास्त्रों में अन्य साहित्य द्वारा हमें प्राप्त हैं। भाषा का संबंध मानव समुदाय या समाज के साथ जुड़ा हुआ है। भिन्न-भिन्न देशों, प्रदेशों और जनपदों के लोग अपनी-अपनी भाषायें बोलते हैं। उनके द्वारा एक दूसरे के विचारों को जानते हैं। भिन्न-भिन्न देशों, प्रदेशों में भाषायें भिन्न-भिन्न होती हैं क्योंकि वहाँ रहने वाले लागों का संपर्क सूत्र लगभग वहीं तक होता है। भगवान महावीर का जन्म लिच्छवी गणराज्य में हुआ। आज वह भूभाग उत्तरी बिहार में आता है। वैशाली उस समय लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी। जो अब एक गांव के रूप में स्थित है। दक्षिणी बिहार तब मगध कहलाता था। उस समय उत्तर भारत में जन भाषा के रूप में प्राकृत का प्रचार था। मगध में जो प्राकृत बोली जाती थी; उसे मागधी कहा जाता था। उत्तर भारत के पश्चिमी अंचल में जो भाषा बोली जाती थी; उसे शौरसेनी कहा जाता था। इन दोनों के बीच की भाषा अर्धमागधी थी। अर्धमागधी, मागधी और शौरसेनी दोनों का रूप लिये हुए थी। वह उस समय भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोली जानेवाली प्राकृतों की संपर्क सूत्ररूप भाषा थी।३८ यही कारण है कि भगवान महावीर ने अर्धमागधी भाषा में देशना दी। समवायांग सूत्र३९, भगवई,४० और आचारांग चूर्णि४१ में भी यही कहा है। __ धार्मिक जगत में उस समय संस्कृत का महत्त्व था। उसी में औरों के धर्मशास्त्र रचित थे। धर्म के क्षेत्र में संस्कृत का महत्त्व बहुत बड़ा था, किन्तु साधारण जनता संस्कृत नहीं
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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