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यंत्र-मंत्र-तंत्र-विज्ञान ३२ और आगम के अनमोल रत्नों३३ में चौबीस तीर्थंकरों का वर्णन है। श्री जैनसिद्धांत बोल संग्रह, भाग-६ में चौबीस तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, मातापिता के नाम, लांछन एवं शरीर प्रमाण आदि का उल्लेख है।३४ तीर्थंकरों की ऐसी अनंत चौबीसियाँ हो चुकी हैं और होती रहेंगी।३५ तीर्थंकर एवं धर्मतीर्थ
तीर्थंकर शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्रमण, श्रमणी, श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिका इन चारों का समुदाय तीर्थ या धर्मतीर्थ कहा जाता है। तीर्थंकर अपने अपने युग में तीर्थ की स्थापना करते हैं। वे सर्वज्ञ होते हैं क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म के क्षय होने से वे वीतराग, सर्वज्ञ, केवली हो जाते हैं। वे धर्मदेशना देते हैं। जिसमें तत्त्वदर्शन एवं आचार विद्या का विवेचन होता है। - एक तीर्थंकर की परंपरा जब तक चलती है, तब उनकी वाणी के आधार पर ही सभी धार्मिक उपक्रम गतिशील होते हैं। वर्तमान युग में धर्मतीर्थ या जैन धर्म भगवान महावीर के द्वारा दी गई धर्मदेशना या उपदेश के आधार पर गतिशील है। तीर्थंकरोपदेश : आगम
आगम विशिष्ट ज्ञान के सूचक हैं, जो प्रत्यक्ष बोध के साथ जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि- जिनका ज्ञान, ज्ञानावरणीय कर्म के अपगत या क्षय से सर्वथा निर्मल और शुद्ध हो जाता है। संशय और संदेह रहित होता है ऐसे आप्त पुरुषों सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का संकलन आगम है।
तीर्थंकर सर्वदर्शी, सर्वज्ञाता होते हैं, क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म क्षीण हो जाते हैं। वे धर्म देशना देते हैं। जन-जन को धर्म के सिद्धांतों का, आचार का ज्ञान प्रदान करते हैं। एक-एक युग में एक-एक तीर्थंकर की धर्मदेशना चलती है। यद्यपि, तात्विक रूप में तो कोई भेद नहीं होता, पर आगे होनेवाले तीर्थंकर अपने युग को अपनी वाणी द्वारा संबोधित करते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों का संकलन शब्द रूप में संग्रथन (गूंथना) उनके प्रमुख शिष्य गणधर करते हैं। यह ज्ञान का स्रोत- आगम इसलिए कहा जाता है कियह, अनादि काल की परंपरा से चला आ रहा है। वर्तमान युग में भगवान महावीर की धर्मदेशना हमें आगमों के रूप में प्राप्त है। जिसका गणधरों ने संकलन किया।
भगवान की धर्मदेशना के संबंध में आचार्य भद्रबाह ने लिखा है- अर्हत तीर्थंकर अर्थ भाषित करते हैं। सिद्धांतों या तत्त्वों का आख्यान करते हैं। चतुर्विध धर्म संघ के लाभ या कल्याण के लिए गणधर निपुणतापूर्वक-कुशलतापूर्वक सूत्ररूप में उनका ग्रंथन करते हैं